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प्रमेयरत्नमालायां प्रतिषेधे साध्ये प्रतिषेध्येन विरुद्धानां सम्बन्धिनस्ते व्याप्यादयस्तेषामुपलब्धस्य इत्यर्थः । तथेति षोढेति भावः । तत्र साध्यविरुद्धव्याप्योपलब्धिमाह
नास्त्यत्र शीतस्पर्श औषण्यात् ॥ ६८ ॥ शीतस्पर्शप्रतिषेध्येन हि विरुद्धोऽग्निः, तद्व्याप्यमौष्ण्यमिति । विरुद्धकार्योपलम्भमाह
नास्त्यत्र शीतस्पर्शो धूमात् ॥ ६९ ॥ अत्रापि प्रतिषेध्यस्य साध्यस्य शीतस्पर्शस्य विरुद्धोऽग्निः, तस्य कार्य धूम इति । विरुद्धकारणोपलब्धिमाह
नास्मिन् शरीरिणि सुखमस्ति हृदयशल्यात् ॥ ७० ॥ सुखविरोधि दुःखम्; तस्य कारणं हृदयशल्यमिति ।
प्रतिषेध साध्य होने पर प्रतिषेध के योग्य वस्तु से विरुद्ध पदार्थों के सम्बन्धी जो व्याप्यादि है, उनकी उपलब्धियां छह प्रकार की होती हैं। यह भाव है । आदि शब्द से कार्य , कारण, पूर्व, उत्तर, सहचर ग्रहण किये जाते हैं।
उनमें से साध्यविरुद्ध व्याप्योपलब्धि के विषय में कहते हैं
सूत्रार्थ-यहाँ पर शीत स्पर्श नहीं हैं, क्योंकि उष्णता पायी जाती है।। ६८॥
शीत स्पर्श प्रतिषेध्य की विरोधी अग्नि है, उसकी व्याप्य उष्णता पायी जा रही है।
विरुद्ध कार्योपलब्धि हेतु के विषय में कहते हैंसूत्रार्थ-यहाँ शीतस्पर्श नहीं है; क्योंकि धूम है ।। ६९ ।।
यहाँ भी प्रतिषेध के योग्य साध्य जो शीतस्पर्श उसकी विरुद्ध जो अग्नि, उसका कार्य धूम पाया जाता है। विरुद्धकारणोपलब्धि के विषय में कहते हैं
सूत्रार्थ-इस प्राणी में सुख नहीं है; क्योंकि हृदय में शल्य पाई जाती है ॥ ७० ॥
सुख का विरोधी दुःख है, उसका कारण हृदय की शल्य है।
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