SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कारणहेतुमाह अस्त्यत्रच्छाया छत्रात् ॥ ६३ ॥ उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयात् ॥ ६४ ॥ अथ पूर्वचर हेतुमाह मुहूर्त्तान्ते इति सम्बन्धः । अथोत्तरचरः- तृतीयः समुद्देशः उद्गाद्भरणिः प्राक्तत एव ॥ ६५ ॥ अत्रापि मुहूर्तात्प्रागिति सम्बन्धनीयम्; तत एव कृत्तिकोदयादेवेत्यर्थः । सहचर लिङ्गमाह अस्त्यत्र मातुलिंगे रूपं रसात् ॥ ६६ ॥ विरुद्धोपलब्धिमाह - विरुद्धतदुपलब्धिः प्रतिषेधे तथा ॥ ६७ ॥ विशेष आदि पाया जाता है ॥ ६२ ॥ कारण हेतु के विषय में कहते हैं सूत्रार्थ - यहाँ पर छाया है; क्योंकि छत्र पाया जाता है ॥ ६३ ॥ ११९ अब पूर्वचर हेतु के विषय में कहते हैं सूत्रार्थ -- ( एक मुहूर्त के बाद ) शकट ( रोहिणी नक्षत्र ) का उदय होगा; क्योंकि कृत्तिका का उदय हुआ है ।। ६४ ॥ यहाँ मुहूर्तान्त पद से सम्बन्ध है । अब उत्तरचर हेतु के विषय में कहते हैं सूत्रार्थ - भरणी का उदय एक मुहूर्त के पूर्व ही हो चुका है; क्योंकि कृत्तिका का उदय पाया जाता है ।। ६५ ॥ यहाँ 'मुहूर्तात् प्राक्', पद जोड़ लेना चाहिए। 'तत एव' पद से 'कृत्तिकोदयात् एव' अर्थ ग्रहण करना चाहिए । Jain Education International सहचरलिंग के विषय में कहते हैं सूत्रार्थ - इस मातुलिंग में रूप है; क्योंकि रस पाया जाता है ॥ ६६ ॥ विरुद्धोपलब्धि के विषय में कहते हैं सूत्रार्थ - नास्तित्व साध्य होने पर प्रतिषेध्य साध्य से विरुद्ध तत्संबंधी व्याप्यादि की उपलब्धि छह प्रकार की होती है ॥ ६७ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy