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________________ प्रमेय रत्नमालायां नियमाभावप्रसङ्गाच्च । तस्माद्धेत्वन्तरत्वमेवेति । sarat व्याप्यहेतुं क्रमप्राप्तमुदाहरन्नुक्तान्वयव्यतिरेकपुरस्सरं प्रतिपाद्याशयवशात्प्रतिपादितप्रतिज्ञाद्यवयवपञ्चकं प्रदर्शयति ११८ 'परिणामी शब्दः कृतकत्वात् । य एवं स एवं दृष्टो यथा घटः । कृतकश्चायम्, तस्मात्परिणामीति । यस्तु न परिणामी, स न कृतको दृष्टो यथा वन्ध्यास्तनन्धयः । कृतकश्चायम्, तस्मात्परिणामी ॥ ६१ ॥ स्वोत्पत्तावपेक्षितव्यापारो हि भावः कृतक उच्यते । तच्च कृतकत्वं न कूटस्थ - नित्यपक्षे, नापि क्षणिकपक्षे । किन्तु परिणामित्वे सत्येवेत्य वक्ष्यते । कार्यहेतुमाह अस्त्यत्र देहिनि बुद्धिर्व्याहारादेः ॥ ६२ ॥ अभाव हो जायगा अर्थात् कौन कार्य है और कौन उसका कारण है, इस प्रकार का कोई नियम नहीं बन सकेगा । अतः सहचर हेतु को भिन्न कारण मानना चाहिए । अब क्रम प्राप्त व्याप्य हेतु का उदाहरण देते हुए अन्वयव्यतिरेक पूर्वक शिष्य के अभिप्राय के वश प्रतिपादित प्रतिज्ञादि पाँच अवयवों को प्रदर्शित करते हैं सूत्रार्थ -- शब्द परिणामी है; क्योंकि वह कृतक होता है । जो इस प्रकार अर्थात् कृतक होता है वह इस प्रकार अर्थात् परिणासी देखा जाता है । जैसे- घट | यह शब्द कृतक है, इसलिए परिणामी है । जो परिणामी नहीं होता, वह कृतक भी नहीं देखा जाता है, जैसे कि वन्ध्या का पुत्र । कृतक यह शब्द है, अतः वह परिणामी है ॥ ६१ ॥ अपनी उत्पत्ति में अपेक्षित व्यापार वाला पदार्थ कृतक कहा जाता है। वह कृतकपना न कूटस्थनित्य पक्ष में बनता है और न क्षणिक पक्ष में, किन्तु परिणामी होने पर ही कृतकपना सम्भव है, यह बात आगे कहेंगे । कार्य हेतु के विषय में कहते हैं " सूत्रार्थ - इस देही में बुद्धि है; क्योंकि इसमें वचन, व्यापार, आकार १. पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणः परिणामः सोऽस्यास्तीति स परिणामी । पूर्वावस्थामप्यजहन् संस्पृशन् धर्ममुत्तरम् । स्वस्मादप्रच्युतो धर्मो परिणामी स उच्यते ॥ १ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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