SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीयः समुद्देशः ११७ भावित्वम् । तच्च तद्वयापाराश्रितम्, तस्मान्न प्रकृतयोः कार्यकारणभाव इत्यर्थः । अयमर्थः -- अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यो हि सर्वत्र कार्यकारणभावः । तौ च कार्यप्रति कारणव्यापारसव्यपेक्षा वेवोपपद्यते कुलालस्येव कलशम्प्रति । न चातिव्यवहितेषु तद्वयापाराश्रितत्वमिति । सहचरस्याप्युक्तहेतुष्वनन्तर्भावं दर्शयति सहचारिणोरपि परस्परपरिहारेणावस्थानात्सहोत्पादाच्च ॥ ६० हेत्वन्तरत्वमिति शेषः । अयमभिप्रायः - परस्परपरिहारेणोपलम्भात्तादात्म्यासम्भवात्स्वभाव हेतावनन्तर्भावः । सहोत्पादाच्च न कार्ये कारणे वेति । न च समानसमयवर्तिनोः कार्यकारणभावः सव्येतरगोविषाणवत् । कार्यकारणयोः प्रति तद्भावभावित्व है। कार्य कारण के व्यापार के आश्रित है अतः प्रकृत में ( अतीत जाग्रबोध और भावी उद्बोध तथा भावी मरण और वर्तमान अरिष्ट इनमें ) कार्य कारणभाव नहीं है, यह तात्पर्य है । सब जगह कार्यंकारण भाव अन्वयव्यतिरेक से जाना जाता है । अन्वयव्यतिरेक कार्य के प्रति कारण के व्यापार की अपेक्षा में ही घटित होते हैं, जैसे कुम्भकार का कलश के प्रति अन्वयव्यतिरेक पाया जाता है ( क्योंकि कुम्हार के होने पर कलश की उत्पत्ति होती है, अन्यथा नहीं होती है ) । अतिव्यवहित पदार्थों में कारण के व्यापार का आश्रितपना नहीं होता है । सहचर हेतु का भी स्वभाव, कार्य और कारण हेतुओं में अन्तर्भाव नहीं होता है, यह दर्शित करते हैं- सूत्रार्थ - सहचारी पदार्थ परस्पर के परिहार से रहते हैं, अतः सहचर हेतु का स्वभाव हेतु में अन्तर्भाव नहीं हो सकता और वे एक साथ उत्पन्न होते हैं, अतः उनका कार्य हेतु और कारण हेतु में अन्तर्भाव नहीं हो सकता है । सूत्र में 'हेत्वन्तरत्व' पद शेष है । यह अभिप्राय है- परस्पर परिहार की प्राप्ति से तादात्म्य सम्बन्ध असम्भव होने से ( जिन दो पदार्थों की परस्पर परिहार रूप से विभिन्नता पाई जाती है) उनका स्वभाव हेतु में अन्तर्भाव नहीं होता है । सहचारी पदार्थों के एक साथ उत्पन्न होने से कार्य हेतु अथवा कारण हेतु में भी अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता है । एक साथ उत्पन्न होने वालों में बायें और दक्षिण सींग के समान कार्यकारणभाव नहीं होता है। यदि एक साथ उत्पन्न होने वाले पदार्थों में कार्य-कारण भाव माना जाय तो कार्य-कारण के प्रतिनियम का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy