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________________ तृतीयः समुद्देशः १०३ दाहरणोपनय निगमनभेदात्पञ्चावयवमिति योगः । तन्मतमपाकुर्वन् स्वमत सिद्धमवयवद्वयमेवोपदर्शयन्नाह - एतद्द्वयमेवानुमानाङ्गं नोदाहरणम् ॥ ३३ ॥ एतयोः पक्षहेत्वोर्द्वयमेव नातिरिक्तमित्यर्थः । एवकारेणवादाहरणादिव्यवच्छेदे सिद्धेऽपि परमतनिरासार्थं पुनर्नोदाहरणमित्युक्तम् । तद्धि किं साध्यप्रतिपत्त्यर्थमुतस्विद् हेतोरविनाभावनियमार्थमाहोस्विद् व्याप्तिस्मरणार्थमिति विकल्पान् क्रमेण दूषयन्नाह — न हि तत्साध्यप्रतिपत्त्यङ्गं तत्र यथोक्तहेतोरेव व्यापारात् ॥ ३४ ॥ तदुदाहरणं साध्यप्रतिपत्तेरङ्गं कारणं नेति सम्बन्ध: । तत्र साध्यप्रतिपत्तौ यथोक्तस्य साध्याविनाभावित्वेन निश्चितस्य हेतोर्व्यापारादिति । कहते हैं कि प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण और उपनय के भेद से अनुमान के चार अवयव होना चाहिए। योगों का कहना है कि प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन के भेद से अनुमान के पाँच अवयव होने चाहिए | उनके मत का निराकरण करते हुए स्वमतसिद्ध दो अवयव ही दिखलाते हुए कहते हैं सुत्रार्थ - पक्ष और हेतु ये दोनों ही अनुमान के अंग हैं, उदाहरणादि नहीं ॥ ३३ ॥ पक्ष और हेतु ये दोनों ही अनुमान के अंग हैं। इससे अधिक नहीं, यह अर्थ है । एवकार से ही उदाहरणादि का व्यवच्छेद सिद्ध होने पर भी दूसरे के मत का निराकरण करने के लिए 'उदाहरणादि' नहीं, ऐसा कहा है । वह उदाहरण क्या साध्य के ज्ञान के लिए है या हेतु के अविनाभाव के नियम के लिए है या व्याप्ति के स्मरण के लिए है । इस प्रकार के विकल्पों को क्रम से दूषित करते हुए कहते हैं सूत्रार्थ - वह उदाहरण साध्य की जानकारी का अंग नहीं है, साध्य के परिज्ञान में साध्य के प्रति जिसका अविनाभाव सम्बन्ध है ऐसे निश्चित हेतु का ही व्यापार होता है ॥ ३४ ॥ वह उदाहरण साध्य के परिज्ञान का अंग - कारण नहीं है, इस प्रकार का सम्बन्ध घटित कर लेना चाहिए। उस साध्य के ज्ञान में यथोक्त साध्य के प्रति अविनाभाव सम्बन्ध है, ऐसे निश्चित हेतु का ही व्यापार होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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