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प्रमेयरत्नमालायां
प्रयोगाभावे क्व हेतुर्वर्ततामिति समानमेतत् । तस्मात्कार्यस्वभावानुपलम्भभेदेन पक्षधर्मत्वादिभेदेन च त्रिधा हेतुमुक्त्वा समर्थयमानेन पक्षप्रयोगोऽप्यभ्युपगन्तव्य एवेति ।
अमुमेवार्थमाह
को वा त्रिधा हेतुमुक्त्वा समर्थयमानो न पक्षयति ॥ ३२ ॥ को वा वादी प्रतिवादी चेत्यर्थः । किलार्थे वा शब्दः । युक्त्या पक्षप्रयोगस्यावश्यम्भावे कः किल न पक्षयति, पक्षं न करोति ? अपि तु करोत्येव । किं कृत्वा ? हेतुमुक्त्वैव न पुनरनुक्त्वेत्यर्थः । समर्थनं हि हेतोरसिद्धत्वादिदोषपरिहारेण स्वसाध्य-साधन-सामर्थ्य- प्ररूपणप्रवणं वचनम् । तच्च हेतुप्रयोगोत्तरकालं परेणाङ्गीकृतमित्युक्त्वेति वचनम् ।
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ननु भवतु पक्षप्रयोगस्तथापि पक्षहेतुदृष्टान्तभेदेन श्रयवयवमनुमानमिति साङ्ख्यः । प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयभेदेन चतुरवयवमिति मीमांसकः । प्रतिज्ञाहेतू -
होगा ? तो हमारा कहना है कि पक्ष के प्रयोग के अभाव में हेतु की प्रवृत्ति कहाँ होगी ? दोनों जगह समानता है । इसलिए कार्य, स्वभाव और अनुपलम्भ के भेद से तथा पक्षधर्मत्वादि के भेद से तीन प्रकार का हेतु कहकर समर्थन करनेवाले बौद्ध को पक्ष का प्रयोग स्वीकार करना ही चाहिए ।
अब आचार्य इसी उपर्युक्त अर्थ को उनका उपहास करते हुए कहते हैं
सूत्रार्थ - ऐसा कौन है, जो कि तीन प्रकार के हेतु को कह करके उसका समर्थन करता हुआ भी पक्ष प्रयोग न करे ।। ३२ ।।
कौन ऐसा ( लौकिक या परीक्षक ) वादी या प्रतिवादी है ? निश्चय के अर्थ में वा शब्द है । युक्ति से पक्ष का प्रयोग अवश्यम्भावी होने पर कौन पक्ष का प्रयोग नहीं करता है ? अपितु करता ही है । क्या करके ? हेतु का कथन करके ही, कथन न करके नहीं, यह अर्थ है । हेतु के असिद्धत्व आदि दोषों का परिहार करके अपने साध्य के साधन करने की सामर्थ्य के प्रकटीकरण में समर्थ वचन को समर्थन कहते हैं । वह समर्थन हेतु प्रयोग के उत्तर काल में बौद्धों ने स्वीकार किया है । अतः 'उक्त्वा ' यह वचन सूत्र में कहा है ।
सांख्य का कहना है कि पक्ष का प्रयोग होवे, तथापि पक्ष, हेतु एवं दृष्टान्त के भेद से अनुमान के तीन अवयव होना चाहिए। मीमांसक
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