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________________ तृतीयः समुद्देशः १०१ व्यवच्छेदस्तदर्थ गम्यमानस्यापि साध्यसाधनयोाप्यव्यापकभावप्रदर्शनान्यथानुपपत्तेस्तदाधारस्य गम्यमानस्यापि पक्षस्य वचनं प्रयोगः । अत्रोदाहरणमाहसाध्यमिणि साधनधर्मावबोधनाय पक्षधर्मोपसंहारवत् ॥ ३१॥ साध्येन विशिष्टो धर्मी पर्वतादिस्तत्र साधनधर्मावबोधनाय पक्षधर्मोपसंहारवत् पक्षधर्मस्य हेतोरुपसंहार उपनयस्तद्वदिति । अयमर्थः-साध्यव्याप्तसाधनप्रदर्शनेन तदाधारावगतावपि नियतमिसम्बन्धिताप्रदर्शनार्थं यथोपनयस्तथा साध्यस्य विशिष्टधमिसम्बन्धितावबोधनाय पक्षवचनमपीति । किञ्च-हेतुप्रयोगेऽपि समर्थनमवश्यं वक्तव्यम्; असमर्थितस्य हेतुत्वायोगात् । तथा च समर्थनोपन्यासादेव हेतोः सामर्थ्यसिद्धत्वाद्धेतुप्रयोगोऽनर्थकः स्यात् । हेतुप्रयोगाभावे कस्य समर्थनमिति चेत् पक्ष इस साध्य रूप धर्म का आधार यहाँ रसोईघर आदि है या पर्वत है उसका अपनोद-व्यवच्छेद करने के लिए गम्यमान भी यदि पक्ष का प्रयोग न किया जाय तो साध्य-साधन के व्याप्य व्यापक भाव रूप सम्बन्ध का प्रदर्शन अन्यथा नहीं बन सकता। अतः हेतु की सामर्थ्य से ज्ञात होने वाले पक्ष का प्रयोग करना ही चाहिए। यहाँ पर उदाहरण कहते हैं सूत्रार्थ-जैसे साध्य से युक्त धर्मी में साधनधर्म के ज्ञान कराने के लिए पक्ष धर्म के उपसंहार रूप उपनय का प्रयोग किया जाता है ।। ३१ ।। ___ साध्य से विशिष्ट जो धर्मी पर्वतादिक, उसमें साधन धर्म का ज्ञान करने के लिए पक्ष धर्म के उपसंहार के समान पक्ष धर्म जो हेतु उसके उपसंहार को उपनय कहते हैं-उसके समान ( उसी प्रकार यह धमवान् है)। यह अर्थ है-साध्य के साथ व्याप्त साधन के प्रदर्शन से उसके आधार के अवगत हो जाने पर भी नियत धर्मी के साथ सम्बन्धपना बतलाने के लिए जैसे उपनय का प्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार साध्य का विशिष्ट धर्मी के साथ सम्बन्धपना बतलाने के लिए जैसे उपनय आवश्यक है, उसी प्रकार साध्य का विशिष्ट धर्मी के साथ सम्बन्धपना बतलाने के लिए पक्ष का वचन भी आवश्यक है। दूसरी बात यह है कि हेतु का प्रयोग करने पर भी समर्थन अवश्य करना चाहिए, क्योंकि असमर्थित हेतु नहीं हो सकता। ऐसा होने पर जब समर्थन के कथन से ही हेतु सामर्थ्य सिद्ध है, फिर हेतु का प्रयोग करना अनर्थक है। हे बौद्ध यदि आप ऐसा कहते हैं कि हेतु के प्रयोग के अभाव में किसका समर्थन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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