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तृतीयः समुद्देशः साध्या । अयमर्थः -प्रमाणप्रतिपन्नमपि वस्तु विशिष्टधर्माघारतया विवादपदमारोहतीति साध्यता नातिवर्तत इति । एवमुभयसिद्धेऽपि योज्यम् ।
प्रमाणोभयसिद्धं धर्मिद्वयं क्रमेण दर्शयन्नाहअग्निमानयं देशः परिणामी शब्द इति यथा ॥ २७ ॥
देशो हि प्रत्यक्षण सिद्धः, शब्दस्तुभयसिद्धः । न हि प्रत्यक्षणाग्दिर्शिभिरनियतदिग्देशकालावच्छिन्नाः सर्वे शब्दा निश्चेतुं पार्यन्ते । सर्वदर्शिनस्तु तन्निश्चयेऽपि तं प्रत्यनुमानानर्थक्यात् ।
प्रयोगकालापेक्षया धर्मविशिष्टधर्मिणः साध्यत्वमभिधाय व्याप्तिकालापेक्षया साध्यनियमं दर्शयन्नाह
व्याप्तौ तु साध्यं धर्म एव ॥ २८ ॥ सुगमम् ।
साध्य है। इसका अर्थ यह है-प्रमाण से जानी गई भी ( पर्वतादि) वस्तु विशिष्ट धर्म का आधार होने से विवाद का विषय हो जाती है, साध्यता का उल्लंघन नहीं करती है । इस प्रकार उभयसिद्ध में भी योजना करनी चाहिए। __ प्रमाणसिद्ध और उभयसिद्ध दोनों धर्मियों के क्रम को दिखलाते हुए कहते हैं
सूत्रार्थ-जैसे यह प्रदेश अग्नि वाला है और शब्द परिणामी है ॥२७॥
प्रदेश प्रत्यक्ष से सिद्ध है, शब्द उभयसिद्ध है। प्रत्यक्ष से अल्पज्ञ पुरुष अनियत दिग्देशकालवर्ती समस्त शब्द निश्चित करना सम्भव नहीं है। सर्वदर्शी के अनियत दिग्देश-कालवर्ती शब्दों के निश्चय होने पर भी उसके (सर्वज्ञ के ) लिए अनुमान का प्रयोग निरर्थक है।।
अनुमान प्रयोग काल की अपेक्षा से धर्म विशिष्ट धर्मी के साध्यपने का कथन करके व्याप्ति काल की अपेक्षा साध्य नियम नियम को दिखलाते हुए कहते हैं
सूत्रार्थ-व्याप्तिकाल में तो धर्म ही साध्य होता है ॥ २८ ॥ विशेष-जहाँ-जहाँ धआँ होता है, वहाँ-वहाँ अग्नि होती है, इस प्रकार व्याप्ति होने पर प्रयोग काल में धर्म ही साध्य होता है, व्याप्ति के समय धर्मी साध्य नहीं होता है। अग्नि ही साध्य होती है, अग्निविशिष्ट पर्वत नहीं।
यह सूत्र सुगम है।
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