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प्रमेयरस्नमालायां
न प्रतिपद्यते तदाऽनुमानस्य साफल्यात् । न च मानसज्ञानाद् गगनकुसुमादेरपि सद्भावसम्भावनाऽतोऽतिप्रसङ्ग; तज्ज्ञानस्य बाधकप्रत्ययव्यपाकृतसत्ताकवस्तुविषयतया मानसप्रत्यक्षाभासत्वात् । कथं तर्हि तुरगशृङ्गादेधमित्वमिति न चोद्यम्; धर्मिप्रयोगकाले बाधकप्रत्ययानुदयात्सत्त्वसम्भावनोपपत्तेः । न च सर्वज्ञादी साधकप्रमाणासत्त्वेन सत्त्वं प्रति संशीतिः, सुनिश्चितासम्भवद्वाधकप्रमाणत्वेन सुखादाविव सत्त्वनिश्चयातत्र संशयायोगात् । इदानी प्रमाणोभयसिद्ध धर्मिणि किं साध्यमित्याशङ्कायामाह
प्रमाणोभयसिद्धे त साध्यधर्मविशिष्टता ॥ २६॥ 'साध्ये' इतिशब्दः प्राक् द्विवचनान्तोऽप्यर्थवशादेकवचनान्ततया सम्बध्यते प्रमाणं चोभयं च विकल्पप्रमाणद्वयम्, ताभ्यां सिद्ध धर्मिणि साध्यधर्मविशिष्टता
व्यर्थ है। स्वीकृत भी सर्वज्ञका सद्भाव धृष्टता के कारण का सर्वज्ञ का अभाववादी यदि स्वीकार नहीं करता है, तब अनुमान की सार्थकता है ही। मानस ज्ञान से आकाश कुसुमादि की सम्भावना है और उसके मानने पर अतिप्रसंग दोष होता है, ऐसा भी नहीं कह सकते। क्योंकि आकाश कुसुम का ज्ञान बाधक प्रतीति से निराकृत कर दी गयी है सत्ता जिसकी ऐसी वस्तु को विषय करने से मानस प्रत्यक्षाभास है।
शङ्का-तो घोड़े के सींग आदि के धर्मीपना कैसे सम्भव है ?
समाधान-ऐसी शंका नहीं करना चाहिए। धर्मी के प्रयोग काल में बाधक प्रतीति के उदय न होने से घोड़े के सींग के सत्त्व की सम्भावना बन जाती है।
सर्वज्ञ आदि में साधक प्रमाण न होने उसकी सत्ता के विषय में संशय है, ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि सुनिश्चित असम्भव बाधक प्रमाण होने से सुखादि के समान सत्त्व का निश्चय होने से सर्वज्ञ के अस्तित्व में संशय का योग नहीं है।
इस समय प्रमाणसिद्ध और उभयसिद्ध धर्मी में साध्य क्या है ? ऐसो आशंका होने पर कहते हैं___सत्रार्थ-प्रमाण सिद्ध और उभयसिद्ध धर्मी में साध्य धर्म से विशिष्टता होती है ।। २६ ।।
'साध्ये' यह शब्द पहले द्विवचनान्त होते हुए भी अर्थ के वश से एकवचनान्त के रूप से सम्बद्ध किया गया है। प्रमाण और उभय अर्थात् विकल्प और प्रमाण इन दोनों से सिद्ध धर्मी में साध्यधर्म विशिष्टता
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