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________________ तृतीयः समुद्देशः ९७ तस्मिन् धर्मिणि विकल्पसिद्धे सत्ता च तदपेक्षयेतराऽसत्ता च ते द्वेऽपि साध्ये; सुनिर्णीतासम्भव द्वाधकप्रमाणबलेन योग्यानुपलब्धिबलेन चेति शेषः । अत्रोदाहरणमाह अस्ति सर्वज्ञो नास्ति खरविषाणम् ॥ २५ ॥ सुगमम् । भावाभावोभयधर्माणामसिद्ध विरुद्धानैकान्तिकत्वाद ननु धर्मिण्य सिद्धसत्ताके नुमानविषयत्वायोगात् कथं सत्तेतरयोः साध्यत्वम् ? तदुक्तम् असिद्धो भावधर्मश्चेद् व्यभिचार्य भयाश्रितः । विरुद्धो धर्मोऽभावस्य सा सत्ता साध्यते कथम् ॥ २१ ॥ इति तदयुक्तम्; मानसप्रत्यक्षे भावरूपस्यैव धर्मिणः प्रतिपन्नत्वात् । न च तत्सिद्धी तत्सत्त्वस्यापि प्रतिपन्नत्वाद् व्यर्थमनुमानम्; तदभ्युपेतमपि वैय्यात्याद्यदा परो उस धर्मी के विकल्प सिद्ध होने पर सत्ता और उसकी अपेक्षा दूसरी असत्ता ये दोनों ही साध्य हैं। सुनिश्चित असम्भव बाधक प्रमाण के बल से सत्ता साध्य है और योग्य की अनुपलब्धि के बल से असत्ता साध्य है । यहाँ पर उदाहरण कहते हैं सूत्रार्थ - सर्वज्ञ है, खरविषाण ( गधे का सींग ) नहीं है ॥ २५ ॥ यह सूत्र सुगम है । मीमांसक - जिसकी सत्ता असिद्ध है ऐसे धर्मी के होने पर भाव और अभाव उभय धर्मों के असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिकपने के कारण अनुमान के विषयपने का योग न होने सत्ता और असत्ता में साध्यपना कैसे है ? जैसा कि कहा गया है । श्लोकार्थ - सुनिश्चितासम्भव बाधक प्रमाणत्व हेतु सर्वज्ञ का भावरूप धर्म है तो सर्वज्ञ के समान हेतु भी असिद्ध है । ( कौन व्यक्ति ऐसा होगा जो सर्वज्ञ के भाव रूप धर्म की इच्छा करता हुआ सर्वज्ञ को ही न चाहे ) । यदि अभाव रूप धर्म है तो वह विरुद्ध है । ( क्योंकि सर्वज्ञ के अभाव रूप धर्म से सर्वज्ञ के नास्तित्व की ही सिद्धि होगी ) । हेतु यदि सर्वज्ञ का भाव और अभाव रूप धर्म है तो व्यभिचारी हेतु है; ( क्योंकि सपक्ष और विपक्ष में विद्यमान है ) वह सर्वज्ञ की सत्ता कैसे सिद्ध कर सकता है ॥२१॥ जैन - आपका यह कहना अयुक्त है; क्योंकि मानस प्रत्यक्ष में भावरूप ही धर्मी ( सर्वज्ञ ) प्रसिद्ध है । ऐसा भी नहीं कह सकते हैं कि सर्वज्ञ की सिद्धि होने पर उसका सत्त्व रूप धर्म भी प्रसिद्ध होगा, अतः अनुमान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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