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प्रमेयरत्नमालायां देरपि भिन्नविषयत्वेन सुप्रसिद्धत्वान्न ततोऽपि तत्प्रतिपत्तिरित्यारेकायामाह
तत्तिन्निर्णयः ॥ १५ ॥ तर्काद् यथोक्तलक्षणादूहात्तन्निर्णय इति । अथेदानी साध्यलक्षणमाह
इष्टमबाधितमसिद्ध साध्यम् ॥ १६ ॥ अत्रापरे दूषणमाचक्षते-आसन-शयन-भोजन-यान-निधुवनादेरपीष्टत्वात्तदपि साध्यमनुषज्यत इति । तेऽप्यतिबालिशाः, अप्रस्तुतप्रलापित्वात् । अत्र हि साधनमधिक्रियते, तेन साधनविषयत्वेनेप्सितमिष्टमुच्यते ।
इदानीं स्वाभिहितसाध्यलक्षणस्य विशेषणानि सफलयनसिद्धविशेषणं समर्थयितुमाहसन्दिग्धविपर्यस्ताव्युत्पन्नानां साध्यत्वं यथास्यादित्यसिद्धपदमा१७
आता है। अविनाभाव का ज्ञान होने पर अनुमान आत्मलाभ करे और अनुमान के आत्मलाभ करने पर अविनाभाव का ज्ञान हो। यदि अन्य अनुमान से अविनाभाव का निश्चय हो तो उसके भी अविनाभाव का ग्रहण अन्य अनुमान से होगा। इस प्रकार अनवस्था दोष हो जायगा। आगमादि का भी भिन्न विषय सुप्रसिद्ध ही है, उससे भी अविनाभाव का ज्ञान नहीं होगा। इस प्रकार की शंका होने पर कहते हैं
सूत्रार्थ-तर्क से अविनाभाव का निर्णय होता है ॥ १५ ॥
जिसका लक्षण पहले कहा जा चुका है, ऐसे ऊह या तर्क से अविनाभाव का निर्णय होता है ।।
अब साध्य का लक्षण कहते हैंसूत्रार्थ-इष्ट, अबाधित और असिद्ध पदार्थ को साध्य कहते हैं ।। १६॥
साध्य के लक्षण में नैयायिक दूषण देते हैं-आसन, शयन, भोजन, यान, मैथुनादिक भी इष्ट हैं अतः उनके भी साध्यपने का प्रसंग आता है ? ऐसा कहने वाले भी अत्यन्त मर्ख हैं; क्योंकि वे अप्रस्तुत प्रलापी हैं। यहाँ पर साधन का अधिकार है। अतः साधन के विषय रूप से इच्छित वस्तु को ही इष्ट कहा गया है।
अब अपने द्वारा कहे हुए साध्य के लक्षण के विशेषणों की सफलता बतलाते हुए असिद्ध विशेषण का समर्थन करने के लिए कहते हैं.. सूत्रार्थ-संदिग्ध, विपर्यस्त और अव्युत्पन्न पदार्थों के साध्यत्व जिस प्रकार से हो, अतः साध्य के लक्षण में असिद्ध पद दिया है ।। १७ ।।
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