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________________ तृतीयः समुद्देशः इदानीमविनाभावभेदं दर्शयन्नाह सहक्रमभावनियमोऽविनाभावः ॥१२॥ तत्र सहभावनियमस्य विषयं दर्शयन्नाह सहचारिणोाप्यव्यापकयोश्च सहभावः १३ ॥ सहचारिणो रूप-रसयोाप्यव्यापकयोश्च वृक्षत्वशिशपात्वयोरिति । सप्तभ्या विषयो निर्दिष्टः । क्रममावनियमस्य विषयं दर्शयन्नाहपूर्वोत्तरचारिणोः कार्यकारणयोश्च क्रमभावः ॥ १४ ॥ पूर्वोत्तरचारिणोः कृत्तिकोदय-शकटोदययोः कार्यकारणयोश्च धूम-धूमध्वजयोः क्रमभावः। नन्वेवम्भूतस्याविनाभावस्य न प्रत्यक्षेण ग्रहणम्; तस्य सन्निहितविषयत्वात् । नाप्यनुमानेन; प्रकृतापरानुमानकल्पनायामितरेतराश्रयत्वानवस्थावतारात् । आगमा अब अविनाभाव के भेदों को दिखलाते हुए कहते हैं । सूत्रार्थ–सहभावनियम और क्रमभावनियम को अविनाभाव कहते हैं ।। १२ ॥ इनमें से सहभावनियम के विषय को दिखलाते हुए कहते हैं सूत्रार्थ–सहचारी और व्याप्प-व्यापक पदार्थों में सहभावनियम होता है ।। १३ ॥ सहभावनियम के उदाहरण-सहचारी रूप और रस व्याप्त और व्यापक वृक्षत्व और शिशपात्व । सूत्र में सप्तमो विभक्ति के द्वारा विषय. निर्दिष्ट है। क्रमभावनियम का विषय दिखलाते हए कहते हैं सूत्रार्थ-पूर्व और उत्तरचर में तथा कार्य और कारण में क्रमभाव नियम होता है ।। १४ ।। पूर्वचर और उत्तरचर कृत्तिकोदय-शकटोदय तथा कार्य-कारण धूम और अग्नि में क्रमभाव होता है। शंका-इस प्रकार के अविनाभाव का प्रत्यक्ष से ग्रहण नहीं होता है; क्योंकि उसका विषय सन्निहित पदार्थ होता है। अनुमान से भी अविनाभाव का ग्रहण नहीं होता है। अनुमान से यदि अविनाभाव का ग्रहण हो तो प्रकृत अनुमान से अविनाभाव का ग्रहण होता है या अन्य अनुमान से ? यदि प्रकृत अनुमान से अविनाभाव का ग्रहण हो तो इतरेतराश्रय दोष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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