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________________ प्रमेयरत्नमालायां गमकत्वापत्तिरिति, तदप्यनेन निरस्तम्, अन्यथानुपपत्तिबलेनवापक्षधर्मस्यापि साधुत्वाभ्युपगमात् । न चेह साऽस्ति । ततोऽविनाभाव एव हेतोः प्रधान लक्षणमभ्युपगन्तव्यम्; तस्मिन् सत्यसति त्रिलक्षणत्वेपि हेतोर्गमकत्वदर्शनात् । इति न त्ररूप्यं हेतुलक्षणम्, अव्यापकत्वात् । सर्वेषां क्षणिकत्वे साध्ये सत्त्वादेः साधनस्य सपक्षेऽसतोऽपि स्वयं सौगतैर्गमकत्वाभ्युपगमात् । ____एतेन पञ्चलक्षणत्वमपि यौगपरिकल्पितं न हेतोरुपपत्तिमियीत्यभिहितं बोद्धव्यम् । पक्षधर्मत्वे सत्यन्वयव्यतिरेकावबाधितविषयत्वमसत्प्रतिपक्षत्वं चेति पञ्च लक्षणानि, तेषामप्यविनाभावप्रपञ्चतैव बाधितविषयस्याविनाभावायोगात्; सत्प्रतिपक्षस्येवेति, साध्याभासविषयत्वेनासम्यग्घेतुत्वाच्च, यथोक्तपक्षविषयत्वाभावात्तदोषेणैव दुष्टत्वात् । अतः स्थितम्-साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुरिति । साध्य के गमकता की प्राप्ति होगी। इसका भी निराकरण अन्यथानुपत्ति नामक एक लक्षण के द्वारा कर दिया, क्योंकि अन्यथानुपपत्ति के बल से ही पक्ष में नहीं रहने वाले भी हेतु के साधता स्वीकार की गई है। कौए की कालिमा से महल सफेद है, यहाँ पर वह अन्यथानुपपत्ति नहीं है। अतः अविनाभाव ही हेतु का प्रधान लक्षण मानना चाहिए । ( अतः कार्यकारण भाव अन्वयव्यतिरेक से ही प्राप्त है, यह बात प्राप्त हुई)। त्रिलक्षण चाहे हो अथवा न हो, यदि अविनाभाव है तो हेतु गमक दिखाई देता है। इस प्रकार अव्यापक होने के कारण त्रैरूप्य हेतु का लक्षण नहीं है। क्षणिकत्व साध्य होने पर सत्त्वादि साधन सपक्ष में न रहने पर भी स्वयं बौद्धों ने गमकता मानी है। त्रैरूप्य के निराकरण के द्वारा योग के द्वारा परिकल्पित पञ्चलक्षणत्व भी हेतुपने को प्राप्त नहीं होता है। पक्षधर्मत्व के होने पर अन्वय ( सपक्ष में होना ), व्यतिरेक ( विपक्ष से व्यावत्ति ) अबाधित विषयत्व और असत्प्रतिपक्ष ये पाँच लक्षण अविनाभाव के ही विस्तार हैं। क्योंकि बाधित विषय के अविनाभाव का योग नहीं है। जैसे कि सत्प्रतिपक्ष के अविनाभाव सम्भव नहीं है। साध्याभास को विषय करने से हेतु असम्यक भी है, क्योकि वह अविनाभाव रूप पक्ष को विषय नहीं करता है, अतः वह पक्ष के दोष से ही दुष्ट है। अतः यह बात सिद्ध हुई कि जिसका साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध निश्चित हो, वही हेतु होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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