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तृतीयः समुद्देशः श्रेयसी, न त्रिरूपता; तस्यां सत्यामपि यथोक्तलक्षणाभावे हेतोर्गमकत्वादर्शनात् । तथा हि-स, श्यामस्तत्पुत्रत्वादितरतत्पुत्रवत् इत्यत्र त्रैरूप्यसम्भवेऽप्यगमकत्वमुपलक्ष्यते ।
अथ विपक्षाद् व्यावृत्तिनियमवती तत्र न दृश्यते, ततो न गमकत्वमिति । तदपि मुग्धविल सितमेव, तस्या एवाविनाभावरूपत्वात् । इतररूपसद्भावेऽपि तदभावे हेतोः स्वसाध्यसिद्धि प्रति गमकत्वानिष्टौ सैव प्रधानं लक्षणमणमुपलक्षणीयमिति । तत्सद्भावे चेतररूपद्वयनिरपेक्षतया गमकत्वोपपत्तेश्च ।।
यथा सन्त्यद्वैतवादिनोऽपि प्रमाणानीष्टानिष्टसाधनदूषणान्यथानुपपत्तेः। न चात्र पक्षधर्मत्वं सपक्षान्वयो वास्ति; केवलमविनाभावमात्रेण गमकत्वप्रतीतेः। यदप्युक्तं परैः-पक्षधर्मताऽभावेऽपि 'काकस्य काष्णर्याखवलः प्रासादः' इत्यस्यापि निश्चित लक्षण के पाये जाने का विरोध है। व्यभिचारी हेतु में भी अन्यथानुपपत्ति रूप लक्षण के रहने का अवकाश नहीं है । यथोक्त साध्याविनाभाविनियम लक्षण के न बनने से तीनों दोषों का परिहार करने वाली अन्यथानुपपत्ति ही श्रेयस्कर है, त्रैरूप्य श्रेयस्कर नहीं है । त्रैरूप्य के होने पर भी यथोक्त अविनाभाव लक्षण के अभाव में (क्योंकि साध्य के प्रति अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाला हेतु निश्चित होता है ) हेतु के गमकता नहीं देखो जाती है । जैसे कि--वह श्याम है; क्योंकि उसका पुत्र है, दूसरे पूत्रों के समान यहाँ पर त्रैरूप्य सम्भव होने पर भी गमकपना नहीं देखा जाता है।
यदि कहा जाय कि विपक्ष से व्यावृत्ति नियम वाली नहीं दिखाई देती है अतः तत्पुत्रत्व हेतु गमक नहीं है, यह कहना भी मुग्ध पुरुष के विलास के समान है, क्योंकि उस विपक्ष-व्यावृत्ति का नाम ही अविनाभाव है इतर रूपों के सद्भाव होने पर भी विपक्ष व्यावृत्ति के अभाव में हेतु के अपने साध्य की सिद्धि के प्रति गमकपना नहीं है, अतएव साध्य के साथ अविनाभाव वाली विपक्ष व्यावृत्ति को ही हेतु का निर्दोष लक्षण प्रतिपादन करना चाहिए, क्योंकि उसके सद्भाव में अन्य दो रूपों की निरपेक्षता से भी हेतु की साध्य के प्रति गमकता बन जाती है।
अद्वैतवादियों के यहाँ भी प्रमाण हैं, अन्यथा इष्ट का साधन और अनिष्ट का दूषण नहीं बन सकता। इस अनुमान में पक्षधर्मत्व और सपक्षसत्व नहीं है। केवल अविनाभाव मात्र से गमकत्व की प्रतीति होती है।
जो कि बौद्धादिकोंने कहा है-पक्षधर्मता के अभाव में भी 'कौए के कालेपन से महल सफेद है', यहाँ पर कौए रूप हेतु के महल के सफेदरूप
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