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________________ प्रमेयरत्नमालायां तु विरुद्धत्वापनोदार्थम् । विपक्षे चासत्त्वमेवानकान्तिक-व्युदासार्थमिति । तदुक्तम् हेतोस्त्रिष्वपि रूपेषु निर्णयस्तेन वणितः। असिद्धविपरीतार्थव्यभिचारिविपक्षितः ॥२०॥ तदयुक्तम्; अविनाभावनियमनिश्चयादेव दोषत्रयपरिहारोपपत्तेः। अविनाभावो ह्यन्यथानुपपन्नत्वम् । तच्चासिद्धस्य न सम्भवत्येव, 'अन्यथानुपपन्नत्वमसिद्धस्य न सिद्धयति इत्यभिधानात् । नापि विरुद्धस्य तल्लक्षणत्वोपपत्तिर्विपरीतनिश्चिताविनाभाविनि यथोक्तसाध्याविनाभावनियमलक्षणस्यानुपपविरोधात् । व्यभिचारिण्यपि न प्रकृतलक्षणावकाशस्तत एव ततोऽन्यथानुपपत्तिरेव हेतु के निराकरण के लिए है। (शब्द नित्य है, क्योंकि कृतक है, यहाँ पर सपक्ष में असत्त्व है । कृतकता नित्यता की विरोधी अनित्यता से व्याप्त है। अतः हेतु के साध्य के अभाव के समान होने से विरुद्ध हेतु है। अतः विरुद्ध दोष के परिहार के लिए सपक्ष में होना कहा है) । विपक्ष में न होना अनैकान्तिक हेतु के निराकरण के लिए कहा गया है। (शब्द नित्य है; क्योंकि प्रमेय है । यहाँ पर विपक्ष से व्यावृत्ति नहीं है। प्रमेयता रूप हेतु पक्ष भूत शब्द तथा सपक्ष रूप आकाशादि में होने पर भी नित्यत्व के विरोधी घटादि में भी पाए जाने से अनैकान्तिक हेतु है; क्योंकि हेतु पक्ष तथा सपक्ष में होने पर भी विपक्ष से व्यावृत्त नहीं है। अतः अनैकान्तिक हेत्वाभास के निराकरण के लिए विपक्ष से व्यावृत्ति आवश्यक है)। जैसा कि कहा गया है श्लोकार्थ-हेतु के तीन रूपों में ही निर्णय का वर्णन किया गया है। क्योंकि पक्षधर्मत्व असिद्ध दोष का प्रतिपक्षी है, सपक्षसत्त्व विरुद्ध दोष का प्रतिपक्षी है, विपक्ष व्यावृत्ति व्यभिचारी ( अनैकान्तिक दोष ) का प्रतिपक्षी है।॥ २० ॥ ___ जैन-यह कहना ठीक नहीं है। अविनाभावनियम के निश्चय से हो तीनों दोषों का परिहार हो जाता है। अन्यथानुपपन्नत्व को अविनाभाव कहते हैं । अन्यथानुपपन्नत्व असिद्ध के सम्भव नहीं होता है । अन्यथानुपपन्नत्व असिद्ध हेतु के सिद्ध नहीं होता है, ऐसा कहा गया है। विरुद्ध हेतु के भी अन्यथानुपपन्नत्व सिद्ध नहीं होता है; क्योंकि साध्य से विपरीत पदार्थ के साथ निश्चित अविनाभावी हेतु में यथोक्त साध्याविना भावी १. अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ १ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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