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________________ प्रमेयरत्नमालायां यच्च परमब्रह्मविवर्तत्वमखिलभेदानामित्युक्तम्, तत्राप्येकरूपेणान्वितत्वं हेतुरन्वत्रन्वीयमानद्वयाविनाभावित्वेन पुरुषाद्वैतं प्रतिबध्नातीति स्वेष्टविघातकारित्वाद्विरुद्धः । अन्दितत्वमेकहेतुके घटादौ, अनेकहेतुके स्तम्भ-कुम्भाम्भोरुहादावप्युपलभ्यत इत्यनैकान्तिकश्च । किमर्थं चेदं कार्यमसौ विदधाति ? अन्येन प्रयुक्तत्वात्, कृपावशात्, क्रीडावशात्, स्वभावाद्वा ? अन्येन प्रयुक्तत्वे स्वातन्त्र्यहानिद्वैतप्रसङ्गश्च । कृपावशादिति नोत्तरम् कृपायां दुःखिनामकरणप्रसङ्गात् परोपकारकरणनिष्ठत्वात् तस्याः । स्ष्टेः प्रागनुकम्पाविषयप्राणिनामभावाच्च न सा युज्यते; कृपापरस्य प्रलयविधानायोगाच्च । अदृष्टवशात्तद्विधाने स्वातन्त्र्यहानिः; कृपापरस्य पीडाकारणादृष्टव्यपेक्षायोगाच्च । अलंकार स्वरूप अष्टसहस्री में विचार किया गया है, अतः यहाँ उसका विस्तार नहीं किया जाता है । समस्त भेदों को जो कि परम ब्रह्म का विवर्त कहा है, वहाँ पर भी 'एक रूप से अन्वित होना' यह हेतु है। अतः अन्वय सम्बन्ध वाला पुरुष और जिनका अन्वय किया जाय, ऐसे पदार्थ, इन दोनों का अविनाभाव सम्बन्ध होने से वह पुरुषाद्वैत का प्रतिषेध करता है, इस प्रकार अद्वैत का विघात करने वाला होने से विरुद्ध है। अन्वितत्व मिट्टो जिसका एक हेतु है ऐसे घटादि में और जिसके अनेक हेतु हैं ऐसे स्तम्भ, कुम्भ और कमल आदि में पाया जाता है, इस प्रकार अनेकान्तिक हेत्वाभास भी है। वह ब्रह्मा किसलिए इस जगत् रचना रूप कार्य को करता है ? अन्य के द्वारा प्रयुक्त होने से, कृपा के वश से, क्रीड़ा के वश से अथवा स्वभाव से ? अन्य के द्वारा प्रयुक्त मानने पर स्वतन्त्रपने की हानि होती है, और द्वैत का प्रसंग भी उपस्थित होता है। यदि कृपा के वश जगत् का निर्माण करता है तो यह कोई उत्तर नहीं है । यदि कृपा है तो दुःखियों की रचना ही नहीं करना चाहिए; क्योंकि कृपा तो एकमात्र परोपकार करने में संलग्न रहती है । सृष्टि के पूर्व अनुकम्पा के विषय प्राणियों के न होने से, वह कृपा सम्भव नहीं है। जो कृपापरायण है, वह प्रलय भी नहीं कर सकता । अदष्ट (पाप) के वश प्रलय करने पर अथवा पाप पुण्य के वश जगत् का निर्माण करने पर उसके स्वातन्त्र्य की हानि होती है। कृपापरायण ब्रह्मा के पीड़ा के कारणभूत अदृष्ट की अपेक्षा भी नहीं बनती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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