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________________ द्वितीयः समुद्देशः ७९ किञ्च-धर्मि-हेतु-दृष्टान्ता अनुमानोपायभूताः प्रतिभासन्ते न वेति ? प्रथमपक्षे प्रतिभासान्तःप्रविष्टाः प्रतिभासहिभूता वा ? यद्याद्यः पक्षस्तदा साध्यान्तःपातित्वान्न ततोऽनुमानम् । तद्बहिर्भावे तैरेव हेतोयभिचारः । अप्रतिभासमानत्वेऽपि तद्व्यवस्थाभावात्ततो नानुमानमिति । ___अथानाद्यविद्याविजृम्भितत्वात् सर्वमेतदसम्बद्धमित्यनल्पतमोविलसितम्; अविद्यायामप्युक्तदोषानुषङ्गात् । सकलविकल्पविकलत्वात्तस्या नैष दोष इत्यप्यतिमुग्धभाषितम् केनापि रूपेण तस्याः प्रतिभासाभावे तत्स्वरूपानवधारणात् । अपरमप्यत्र विस्तरेण देवागमालङ्कारे चिन्तितमिति नेह प्रतन्यते ।। मान के विशेषों को स्वीकार करने पर द्वैत का प्रसंग प्राप्त होता है । दूसरी बात यह है कि अनुमान के उपायभूत धर्मी हेतु और दृष्टान्त प्रतिभासित होते हैं या नहीं ? प्रथम पक्ष मानने पर प्रतिभास के अन्तः प्रविष्ट है या बहिर्भूत हैं यदि आद्य पक्ष हो तो साध्य के अन्दर प्रविष्ट होने से उससे अनुमान नहीं होगा। द्वितीय पक्ष मानने पर उन्हीं के द्वारा प्रतिभासमानत्व हेतु के व्यभिचार आता है। यदि कहा जाय कि अनुमान के उपायभूत वे धर्मी, हेतु, दृष्टान्त प्रतिभासित नहीं होते तो उन धर्मी आदि की व्यवस्था का अभाव होने से उससे अनुमान नहीं होगा। ब्रह्माद्वैतवादी-अनादि अविद्या के व्याप्त होने से धर्मी हेतु आदि प्रतीत होते हैं, वे यथार्थ नहीं हैं, असम्बद्ध हैं। जैन-ऐसा कहना महान् अज्ञानान्धकार के विलास के समान है; क्योंकि अविद्या के मानने पर भी उक्त दोषों का प्रसंग आता है। ( अविद्या प्रतिभासित होती है या प्रतिभासित नहीं होती है ? यदि प्रतिभासित होती है तो प्रतिभास के अन्तःप्रविष्ट है या बहिभूत है ? यदि प्रतिभास के अन्तःप्रविष्ट हो तो विद्या ही होगी। यदि प्रतिभास के बहिभूत है ? तो उसी हेतु से व्यभिचार और द्वैत की प्राप्ति होती है । यदि प्रतिभासित नहीं होती है तो अविद्या, इस प्रकार व्यवस्था नहीं बनती है)। ब्रह्मवादी-अविद्या समस्त विकल्पों से रहित होने से यह दोष नहीं है। जैन-यह कहना भी अति मुग्ध पुरुष के कथन के समान है । किसी ‘भी रूप से उस अविद्या के प्रतिभास का अभाव होने पर उसके स्वरूप का निश्चय नहीं हो सकेगा। इस विषय में और भी देवागम स्तोत्र की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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