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प्रमेयरत्नमालायां प्रत्यक्षं तद्-ग्राहकमस्त्येव; अक्षिविस्फालनानन्तरं निर्विकल्पकस्य सन्मात्रविधि"विषयतयोत्पत्तेः । सत्तायाश्च परमब्रह्मरूपत्वात् । तथा चोक्तम्
अस्ति ह्यालोचनाज्ञानं प्रथमं निर्विकल्पकम् ।
बालमूकादिविज्ञानसदृशं शुद्ध वस्तुजम् ।। ११ ॥ न च विधिवत् परस्परव्यावृत्तिरप्यध्यक्षतः प्रतीयत इति द्वतसिद्धिः, तस्य निषेधाविषयत्वात् । तथा चोक्तम्-~
आहुविधातृ प्रत्यक्षं न निषेधृ विपश्चितः ।
नैकत्वे आगमस्तेन प्रत्यक्षेण प्रबाध्यते ॥ १२ ॥ अनुमानादपि तत्सद्भावो विभाव्यत एव । तथा हि-ग्रामारामादयः पदार्थाः प्रतिभासान्तः प्रविष्टाः, प्रतिभासमानत्वात् । यत्प्रतिभासते तत्प्रतिभासान्तःप्रविष्टम्; यथा प्रतिभासस्वरूपम् । प्रतिभासन्ते च विवादापन्ना इति । तदागमानामपि पुरुष
ब्रह्मवादी-प्रत्यक्ष उस ब्रह्म का ग्राहक है ही, क्योंकि आँख खोलते हो विकल्प ज्ञान से शून्य सत्ता मात्र स्वरूप विधि ( ब्रह्म) को विषय करने से प्रत्यक्ष को उत्पत्ति होती है। यह निर्विकल्प सत्ता ही परमब्रह्म रूप है। जैसा कि कहा गया है
श्लोकार्थ-प्रथम निर्विकल्पक आलोचना ज्ञान उत्पन्न होता है, जो कि बालक और मूक आदि के ज्ञान के समान है और शुद्धवस्तुजनित है ॥ ११॥
विशेष-जो विशेष व्यवहार का अंगभूत नहीं है, ऐसे प्रथमावलोकन रूप ज्ञान को आलोचना ज्ञान कहते हैं।
जिस प्रकार विधि प्रत्यक्ष का विषय है, उसी प्रकार निषेध भी प्रत्यक्ष का विषय है, अतः द्वैतसिद्धि हो जायगी, ऐसा नहीं है। क्योंकि प्रत्यक्ष का विषय निषेध करना नहीं है । जैसा कि कहा है
श्लोकार्थ-विद्वान् लोग प्रत्यक्ष को विधि का विषय कहते हैं, निषेध को नहीं। इसलिए एकत्व के विषय में जो आगम है, वह प्रत्यक्ष से बाधित नहीं होता है ।। १२ ।। __ अनुमान से भी ब्रह्म का सद्भाव जाना ही जाता है । इसी बात को स्पष्ट करते हैं-ग्राम, उद्यान आदि पदार्थ प्रतिभास के अन्तःप्रविष्ट हैं। क्योंकि वे प्रतिभासमान होते हैं। जो प्रतिभासित होता है, वह प्रतिभास के अन्तःप्रविष्ट है, जैसे कि प्रतिभास का स्वरूप । विवाद को प्राप्त ग्राम, उद्यान आदि प्रतिभासित होते हैं, इसलिए वे सब परम ब्रह्म के ही
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