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द्वितीयः समुद्देशः एवेदं यद् भूतं यच्च भाव्यमिति बहुलमुपलम्भात् ।
सर्वं वै खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन । आरामं तस्य पश्यन्ति न तं पश्यति कश्चन ।। १३ ।।
इति श्रुतेश्च । ननु परमब्रह्मण एव परमार्थसत्त्वे कथं घटादिभेदोऽवभासत इति न चोद्यम्; सर्वस्यापि तद्विवर्ततयाऽवभासनात् । न चाशेषभेदस्य तद्विवर्तत्वमसिद्धम्; प्रमाणप्रसिद्धत्वात् । . तथा हि-विवादाध्यासितं विश्वमेककारणपूर्वकम्, एकरूपान्वितत्वात् । घट घटी-सरावोदञ्चनादीनां मुद्रपान्वितानां यथा मृदेककारणपूर्वकत्वम् । सद्रूपेणान्वितं च निखिलं वस्त्विति । तथाऽऽगमोऽप्यस्ति
ऊर्णनाभ इवांशूनां चन्द्रकान्त इवाम्भसाम् ।
प्ररोहाणामिव प्लक्षःस हेतुः सर्वजन्मिनाम् ।। १४ ॥ इति तदेतन्मदिरारसास्वादगद्गदोदितमिव मदनकोद्रवाद्य पयोगजनितव्यामोहमुग्ध
स्वरूप हैं । 'जो हो चुका तथा जो भविष्यकाल में होगा, वह सब पुरुष ही है, इस प्रकार के आगम वाक्य भी बहुलता से पाए जाते हैं ।
श्रुति में भी कहा गया है
श्लोकार्थ-यह सब ब्रह्म ही है, इसके अतिरिक्त इस जगत् में नाना रूप कुछ भी नहीं है। हम लोग उस ब्रह्म के विवर्त को ही देखते हैं, उसे कोई भी नहीं देखता है ।। १३ ।।
परम ब्रह्म को ही परमार्थ सत् मानने पर घटादि का भेद कैसे प्रतीत होता है ? यह बात नहीं कहना चाहिए; क्योंकि सब कुछ उस ब्रह्म के विवर्तस्वरूप अवभासित होता है। समस्त भेद उस ब्रह्म के विवर्त हैं, यह बात असिद्ध नहीं है, क्योंकि यह बात प्रमाण से प्रसिद्ध है। वह इस प्रकार है-विवादापन्न विश्व एक कारण पूर्वक है। क्योंकि वह एक रूप से युक्त है। जिस प्रकार घट, घटी, सकोरा, ढक्कन आदि जो कि मिट्टी के रूप से युक्त हैं, वे सब एक मिट्टी रूप कारण पूर्वक हैं। समस्त. वस्तु इसी प्रकार सत् रूप से युक्त है। उसी प्रकार आगम भी इसमें प्रमाण है
श्लोकार्थ-जैसे मकड़ी अपने निकले हुए तन्तुओं का कारण है, चन्द्रकान्तमणि जल का कारण है, जैसे वटवृक्ष अपने से निकलने वाले प्ररोहों का कारण है, उसी प्रकार वह ब्रह्म समस्त प्राणियों का हेतु है ॥ १४ ॥
जैन-यह मदिरा के रस के आस्वादन से उत्पन्न गद्गद् वचनों के समान है अथवा मदनकोद्रव आदि के उपयोग से जनित व्यामोह से मत
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