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द्वितीयः समुद्देशः
७५ व्यभिचारिणश्चामी हेतवो बुद्धिमत्कारणमन्तरेणापि विद्युदादीनां प्रादुर्भावसम्भवात् । सुप्ताद्यवस्थायामबुद्धिपूर्वकस्यापि कार्यस्य दर्शनात् ।
तदवश्यं तत्रापि भर्गाख्यं कारण मित्यतिमुग्धविलसितम्; तद्-ध्यापारस्याप्यसम्भवादशरीरत्वात । ज्ञानमात्रेण कार्यकारित्वाघटनात्, इच्छा-प्रयत्नयोः शरीराभावेऽसम्भवात् । तदसम्भवश्च पुरातनैविस्तरेणाभिहित आप्तपरीक्षादौ; अतः पुनरत्र नोच्यते । यच्च महेश्वरस्य क्लेशादिभिरपरामृष्टत्वं निरतिशयत्वमैश्वर्याछुपेतत्वं तत्सर्वमपि गगनाब्जसौरभव्यावर्णन मित्र निविषयत्वादुपेक्षामहति । ततो न महेश्वरस्याशेषज्ञत्वम् ।
नापि ब्रह्मणः; तस्यापि सद्भावावेदकप्रमाणाभावात् । न तावत्प्रत्यक्षं तदावेदकम् अविप्रतिपत्तिप्रसङ्गात् । न चानुमानम्; अविनाभाविलिंगाभावात् । ननु
(जैसे घट तथा पट के कर्ता कुम्भकार और जुलाहे हैं, उस प्रकार विद्युत् का कोई कर्ता नहीं है अतः विद्युत् में बुद्धिमान् कर्ता के अभाव रूप कार्य के सद्भाव से व्यभिचारीपना है)। ये कार्यत्व आदि हेतु व्यभिचारी भी हैं, क्योंकि बुद्धिमान् कारण के बिना भी विद्यु दादि का प्रादुर्भाव सम्भव है। सुप्त आदि अवस्था में अबुद्धिपूर्वक भी ( हस्त पादादि सञ्चालन रूप ) कार्य देखा जाता है।
विद्यु दादि तथा सुप्तादि अवस्थाओं में समुत्पन्न कार्य में सदाशिव नामक कारण है, यह कहना भी अतिमुग्ध व्यक्ति के विलास के समान है; क्योंकि वह सदाशिव अशरीरी है, अतः उसका व्यापार असम्भव है। ज्ञान मात्र से कार्यकारित्व घटित नहीं होता है; क्योंकि इच्छा और प्रयत्न शरीर के अभाव में असम्भव हैं। इस असम्भवता का निरूपण प्राचीन आचार्यों ने आप्तपरीक्षा आदि में किया है, अतः यहाँ पुनः नहीं कहा जाता है। और महेश्वर के जो क्लेशादि से अपरामृष्टत्व, निरतिशयत्व और ऐश्वर्य आदि से युक्तत्व कहा है, वह सब आकाश कमल की सुगन्धि के वर्णन के समान निविषय होने से उपेक्षा योग्य है । इस प्रकार महेश्वर के सर्वज्ञता नहीं है।
ब्रह्म के भी सर्वज्ञपना नहीं है। क्योंकि उस ब्रह्म के सद्भाव को सिद्ध करने वाले प्रमाण का अभाव है। प्रत्यक्ष तो ब्रह्म के अस्तित्व का साधक हो नहीं सकता; क्योंकि सवको ब्रह्म का दर्शन होना चाहिए, किसी को ब्रह्म में विवाद नहीं होना चाहिए, इस प्रकार का प्रसङ्ग उपस्थित होता है । अनुमान भी ब्रह्म के अस्तित्व का साधक नहीं हो सकता; क्योंकि अविनाभाव रखने वाले लिङ्ग का अभाव है ।
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