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________________ द्वितीयः समुद्देशः ७१ प्रसाध्यते, तदप्यशिक्षितलक्षितम् अवयवेषु वृत्तेरवयवैरारभ्यत्वेन च सावयवत्वा. नुपपत्तः। प्रथमपक्षे सावयवसामान्यनानेकान्तात् । द्वितीयपक्षे साध्याविशिष्टत्वात् । अथ सन्निवेश एव सावयवत्वम्, तच्च घटादिवत् पृथिव्यादावुपलभ्यत इत्यभूत्वाभावित्वमभिधीयते । तदप्यपेशलम्; सन्निवेशस्यापि विचारासहत्वात् । स हि अवयवसम्बन्धो भवेद् रचनाविशेषो वा ? यद्यवयवसम्बन्धस्तदा गगनादिनाऽनेकान्तः; सकलमूत्तिमद्रव्यसंयोगनिबन्धनप्रदेशनानात्वस्य सद्भावात् । अथोपचरिता एव तत्र प्रदेशा इति चेत्तहि सकलमूत्तिमद्-द्र व्यसम्बन्धस्याप्युपचरितत्वात् सर्वगतत्वमप्युपचरितं स्यात् ; श्रोत्रस्यार्थक्रियाकारित्वं च न स्यादुपचरितप्रदेशरूपत्वात् । धर्मादिना संस्कारात्ततः सेत्युक्तम् । उपचरितस्यासद्रूपस्य तेनोपकारायोगात् , खरविषाणस्येव । ततो न किञ्चिदेतत् । अथ रचनाविशेषस्तदा पर के कथन के समान है। अवयवों में अवयवी रहे अथवा अवयवों से प्रारम्भ किये जाने, दोनों हो प्रकार से सावयवपना नहीं बनता है। प्रथम पक्ष के मानने पर सावयव सामान्य से अनेकान्त दोष आता है। द्वितीय पक्ष में साध्यसम है ( क्योंकि अवयवों से आरभ्यत्व और कार्यत्व इन दोनों का अर्थ समान ही है)। यदि सन्निवेश ही सावयवत्व हो और वह घटादि के समान पृथ्वी आदिक में भी पाया जाता है। यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि सन्निवेश के भी विचार का असहपना है अर्थात् विचार करने पर वह कोई वस्तु नहीं ठहरता। प्रश्न है कि अवयवों के साथ सम्बन्ध होने का नाम सन्निवेश है अथवा रचनाविशेष का नाम सन्निवेश है ? यदि अवयव सम्बन्ध का नाम सन्निवेश है तो आकाशादि से अनेकान्त दोष आता है; क्योंकि समस्त मूर्तिमान् द्रव्यों के संयोग का कारण प्रदेशोंका नानात्व आकाशादि में पाया जाता है। यदि कहें कि आकाशादि में तो प्रदेश उपचरित हैं, तब तो समस्त मूतिक द्रव्यों का सम्बन्ध भी उपचरित होने से आकाश सर्वव्यापकता उपचरित हो जायगी और श्रोत्र के अर्थक्रियाकारिता भी नहीं रहेगी अर्थात् श्रोत शब्द का ग्राहक नहीं रहेगा; क्योंकि आकाश के प्रदेश उपचरित हैं। यदि कहो कि पवित्र औषधादि तथा सुख दुःख का अनुभव कराने वाला धर्माधर्म विशिष्ट नभो प्रदेश ही श्रोत्र के रूप में माना गया है तो हमारा कहना है कि उपचरित असद्रप धर्माधर्म से किसो प्रकार का उपकार नहीं किया जा सकता। जैसे गधे के सींग का किसी पदार्थ से कुछ उपकार नहीं किया जा सकता। अतः अवयव सम्बन्ध रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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