SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयरत्नमालायां कालक्रियाद्वयाधिकरणभूते कर्तरि सिद्ध सिद्धिमध्यास्ते; क्त्वान्तपदविशेषितवाक्यार्थत्वाद् भुक्त्वा बजतीत्यादिवाक्यार्थवत् । न चात्र भवना भवनयोराधारभूतस्य कतुरनुभवोऽस्ति अभवनाधारस्याविद्यमानत्वेन भवनाधारस्य च विद्यमानतया भावाभावयोरेकाश्रयविरोधात् । अविरोधे च तयोः पर्यायमात्रेणैव भेदो न वास्तव इति । अस्तु वा यथाकथञ्चिदभूत्वाभावित्वम्, तथापि तन्वादौ सर्वत्रानभ्युपगमाद् भागासिद्धम् । न हि मही-महीधराकूपारारामादयः प्रागभूत्वा भवन्तोऽभ्युपगम्यन्ते परः, तेषां तैः सर्वदाऽवस्थानाभ्युपगमात्' । अथ सावयवत्वेन तेषामपि सादित्वं हैं ) अभूत्वाभावित्व भिन्नकालवर्ती दो क्रियाओं के अधिकरण भूत कर्ता के सिद्ध हो जाने पर ही सिद्धि को प्राप्त हो सकता है; क्योंकि क्त्वा प्रत्यय जिसके अन्त में है, ऐसे वाक्य के अर्थ रूप है । जैसे "भुक्त्वा व्रजति' अर्थात् भोजन करके जाता है, इत्यादि वाक्य का अर्थ है। ( यहाँ भोजन क्रिया अतीत रूपा है। जैसे-यहाँ भिन्नकालाधिकरणभूत कर्ता देवदत्त के होने पर ही भोजन करके जाता है, यह युक्त है, उसी प्रकार अभवन और भवन दोनों क्रियाओं के अधिकरणभूत कर्ता का अनुभव नहीं है । ) यहाँ पर विद्यमान और अविद्यमान दो क्रियाओं का आधारभूत कर्ता का अनुभव नहीं है। अभवन क्रिया का आधार अविद्यमान होने भवन क्रिया का आधार विद्यमान होने से भाव और अभाव क्रिया के एक आश्रय का विरोध है। यह दोष भाववादियों का ही है, स्याद्वादियों का नहीं; उनके यहाँ अभाव भी भावान्तर रूप है। वस्तू भावाभावात्मक मानी गई है। एक आश्रय होने पर यदि भाव और अभाव में विरोध न हो तो उन दोनों में नाम मात्र का भेद रहेगा, वास्तविक नहीं। अथवा जिस किसी प्रकार अभूत्वाभावित्व मान भी लिया जाय तथापि तनु आदि सब जगह स्वीकार न करने से भागासिद्ध हो जायगा। हम ( जैन ) लोग पृथिवी, पर्वत, कुआँ, उद्यान आदि को पहले नहीं होकर होते हुए नहीं मानते हैं; किन्तु इनका हमने सर्वदा ही अवस्थान माना है। ( काल, सर्वज्ञनाथ, जीव, लोक तथा आगम ये सभी अनादिनिधन होकर द्रव्य रूप में स्थित हैं। ) यदि सावयव होने के कारण उन पृथ्वी, पर्वतादिकों का भी सादित्व सिद्ध किया जाता है तो यह भी अशिक्षित व्यक्ति १. कालः सर्वज्ञनाथश्च जीवो लोकस्तथाऽऽगमः । अनादिनिधना ह्यते द्रव्यरूपेण संस्थिताः ॥ १ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy