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द्वितीयः समुद्देशः सन्निधानाभावान्न सर्वदोपलम्भप्रसंगः । ननु वस्तूत्पत्यर्थं कारणानां व्यापारः, उत्पादश्च स्वकारणसत्तासमवायः, स च सर्वदाप्यस्ति, इति तदर्थं कारणोपादानमनर्थकमेव स्यात् ।
अभिव्यक्त्त्यर्थं तदुपादानमित्यपि वार्तम्; वस्तूत्पादापेक्षया अभिव्यक्तेरघटनात् । वस्त्वपेक्षयाऽभिव्यक्ती कारणसम्पातात्प्रागपि कार्यवस्तुसद्भावप्रसङ्गात् । उत्पादस्याप्यभिव्यक्तिरसम्भाव्या; स्वकारणसत्तासम्बन्धलक्षणस्योत्पादस्यापि कारणव्यापारात्प्राक् सद्भावे वस्तुसद्भावप्रसंगात्; तल्लक्षणत्वाद्वस्तुसत्त्वस्य । प्राक् सत एव हि केनचित् तिरोहितस्याभिव्यञ्जकेनाभिव्यक्तिः, तमस्तिरोहितस्य घटस्येव प्रदीपादिनेति । तन्नाभिव्यक्त्यर्थं कारणोपादानं युक्तम् । तन्न स्वकारणसत्तासम्बन्धः कार्यत्वम् ।
नाप्यभूत्वाभावित्वम्, तस्यापि विचारासहत्वात् । अभूत्वाभावित्वं हि भिन्न
वस्तु के उत्पादक कारणों के सन्निधान के अभाव से कार्यों के सर्वदा होने का प्रसंग नहीं आएगा, यदि ऐसा कहें तो जैनों का कहना है कि वस्तु की उत्पत्ति के लिए कारणों का व्यापार होता है और उत्पाद स्व कारण सत्ता समवाय रूप है, वह सर्वदा है ही ? इस प्रकार वस्तु को उत्पत्ति के लिए कारणों का उपादान करना अनर्थक होगा।
वस्तु के कारणों का ग्रहण कार्य की अभिव्यक्ति के लिए आवश्यक है, यह कथन भी असत्य है; क्योंकि वस्तु के उत्पाद की अपेक्षा अभिव्यक्ति का कथन घटित नहीं होता। यदि वस्तु की अपेक्षा से अभिव्यक्ति मानी जाय तो कारण के समागम से पहले भी कार्य रूप वस्तु के सद्भाव का प्रसंग आता है। उत्पाद की अभिव्यक्ति भी असम्भाव्य है; क्योंकि स्वकारण सत्ता सम्बन्ध लक्षण रूप उत्पाद के भी कारण व्यापार से पूर्व सद्भाव मानने पर वस्तु के सद्भाव का प्रसंग आता है; क्योंकि सत्त्व का लक्षण स्वकारण सत्ता सम्बन्ध है। जो वस्तु पहले सत् हो, बाद में किसी से तिरोहित हो जाय तो उसकी अभिव्यञ्जक कारणों से अभिव्यक्ति होती है। जैसे अन्धकार से तिरोहित घट की प्रदीप आदि से अभिव्यक्ति होती है। अतः अभिव्यक्ति के लिए कारणों का उपादान करना युक्त नहीं है । अतः स्वकारण सत्ता सम्बन्ध रूप कार्यत्व सिद्ध नहीं होता है।
अभूत्वाभावित्व को भी कार्यत्व नहीं कह सकते; क्योंकि वह भो विचारसह नहीं है। (नैयायिक लोग असत्कार्यवादी हैं, उनके मत में परमाणु आदि कारणों में सर्वथा असत् ही द्वयणुकादि कार्य उत्पन्न होते
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