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________________ प्रमेयरत्नमालायां ऐश्वर्यमप्रतिहतं सहजो विरागस्तृप्तिनिसर्गजनितावशितेन्द्रियेषु । आत्यन्तिकं सुखमनावरणा च शक्तिर्ज्ञानं च सर्वविषयं भगवंस्तवैव ॥१०॥ इत्यवधूतवचनाच्च । न चात्र कार्यत्वमसिद्धम् सावयवत्वेन कार्यत्वसिद्धेः। नापि विरुद्धम्, विपक्ष विशेष-अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश क्लेश हैं । इनमें से विपरीत ज्ञान अविद्या है। अनित्य, अशचि और दुःखात्मक वस्तुओंमें नित्य, शुचि और सुखरूप ज्ञान अविद्या है, नित्यादि चार में अनित्यादि चतुष्टय बुद्धि, पापादि में पुण्यबद्धि भी विवक्षित है। क्योंकि वे भी संसार की हेतु अविद्या स्वरूप हैं। अहो, मैं हूँ, इस प्रकार का अभिमान अस्मिता है, दष्टि और दर्शन को शक्ति की एकात्मता अस्मिता है। राग और द्वेष, सुख और दुःख तथा उनके साधनों के रूप में प्रसिद्ध है। सुखानुशयी राग है। सुख और सुख के साधन मात्र विषयक क्लेश राग है । दुःखानुशयी द्वेष है । आप्त और ईश्वर के भङ्ग का भय और दुराग्रह का नाम अभिनिवेश है। स्वरसवाही विद्वान् का भी उस प्रकार आरूढ़ होना अभिनिवेश है। अपने संस्कार से ही जो ले जाता है उसे स्वरसवाही कहते हैं। भय अविद्वान् के समान विद्वान् के भी स्वरसवाही हेतु से प्रसिद्ध है। यही अभिनिवेश है । अश्वमेध ब्रह्महत्यादिक कर्म हैं। कर्म के फल विपाक हैं। कर्म के फल रूप जाति, आयु और भोग को विपाक कहते हैं। देवत्व, मनुष्यत्वादि जाति है। प्राण नामक वायु का काल की अपेक्षा परिमित सम्बन्ध आयु है। स्व से समवेत सुख दुःख का साक्षात्कार भोग है। ज्ञानादि की वासना आशय है। संसार से वासित चित्त का परिणाम आशय है। जब तक निवृत्ति नहीं हो जाती तब तक जो आत्मा में शयन करता है, उसे आशय कहते हैं। अवधूत के वचन भी इस विषय में प्रमाण हैं-- श्लोकार्थ-हे भगवन् ! आपका ऐश्वर्य अप्रतिहत है, विराग स्वाभाविक है, तृप्ति स्वाभाविक है, इन्द्रियों में वशिता है, आपका सुख विनाश रहित है, शक्ति अनावरण है, तथा ज्ञान सर्वविषयक है ।। १० ॥ तनु आदि में कार्यत्वपना असिद्ध नहीं है। सावयव होने से कार्यत्व की सिद्धि होती है। विशेष-पृथिवी आदि समवायि, असमवायि और निमित्त तीन कारणों से उत्पन्न हैं; क्योंकि वे वस्त्रादि के समान कार्य हैं। चार प्रकार के परमाणु समवायिकारण हैं, परमाणुओं का संयोग असमवायिकारण है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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