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द्वितीयः समुद्देशः आगमोऽपि तदावेदकः श्रयतेविश्वतश्चक्षु रुत विश्वतो मुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतः पात् । सम्बाहुभ्यां धमति सम्पतत्त्रावाभमी जनयन् देव' एकः ।। ८॥ तथा व्यासवचनञ्च
अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः ।
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥९॥ न चाचेतनरेव परमाण्वादिकारणैः पर्याप्तत्वाद् बुद्धिमतः कारणस्यानर्थक्यम्; अचेतनानां स्वयं कार्योत्पत्ती व्यापारायोगात्तुर्यादिवत् । न चैवं चेतनस्यापि चेतनान्तरपूर्वकत्वादनवस्था; तस्य सकलपुरुष ज्येष्ठत्वान्निरतिशयत्वात्सर्वज्ञबीजस्य क्लेशकर्मविपाकाशयरपरामृष्ट त्वादनादिभूतानश्वरज्ञानसम्भवाच्च ।
यदाह पतञ्जलि:
"क्लेशकर्मविपाकाशयरपरामष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः । तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम् । स पूर्वेषामपि गुरुः, कालेनानविच्छेदादिति च ॥" । कथन करने वाला सुना जाता है
श्लोकार्थ-वह सब ओर नेत्र वाला है, सब ओर मुख वाला है, सब ओर भुजाओं वाला है, सब ओर पैर वाला है, वह पुण्य-पाप रूप सम्बाहुओं से संयोजन करता है, और जो परमाणुओं से धुलोक और भूमि को उत्पन्न करता हुआ एकदेव (ईश्वर ) है ॥ ८॥
व्यास के वचन भी ईश्वर के पोषक हैं
श्लोकार्थ-यह अज्ञ प्राणी अपने सुख-दुःख का स्वामी नहीं है । वह ईश्वर से प्रेरित होकर कभी स्वर्ग को जाता है, कभी नरक को ॥ ९ ॥ ____ अचेतन परमाणु आदि कारणों के पर्याप्त होने से बुद्धिमान् कारण की अनर्थकता है, ऐसा नहीं है। अचेतनों के स्वयं कार्योत्पत्ति में व्यापार का अयोग है-तुर्यादि के समान । इस प्रकार चेतन भी अन्य चेतन पूर्वक होने से अनवस्था दोष नहीं आत्मा है, क्योंकि सर्वज्ञता का बीज वह समस्त पुरुषों में ज्येष्ठ है और अतिशयों की परमप्रकर्षता से रहित है, तथा क्लेश, कर्म, विपाक और आशय से रहित है और उसके अनादिभूत अविनश्वर ज्ञान पाया जाता है।
जैसा कि पतञ्जलि ने योगसूत्र में कहा है
क्लेश, कर्म, विपाक और आशय से सर्वथा रहित पुरुषविशेष ईश्वर है। वह निरतिशय सर्वज्ञ-बीज है। वह पूणे (हिरण्यगर्भादि ) का भी गुरु है। क्योंकि उसका काल की अपेक्षा विच्छेद नहीं होता है। १. ईश्वरः ।
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