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प्रमेयरत्नमालायां
न्तानुग्रहेण वा हेतोः पक्षान्तरेऽपि तुल्यवृत्तित्वादिति ।
तदेतत्परेषां स्ववधाय कृत्योत्थापनम्; एवंविधविशेषप्रश्नस्य सर्वज्ञसामान्याभ्युपगमपूर्वकत्वात् । अन्यथा न कस्याप्यशेषज्ञत्वमित्येवं वक्तव्यम् । प्रसिद्धानुमानेऽप्यस्य दोषस्य सम्भवेन जात्युत्तरत्वाच्च । तथाहि-नित्यः शब्दः, प्रत्यभिज्ञायमानत्वात्; इत्युक्ते व्यापकः शब्दो नित्यः प्रसाध्यते, अव्यापको वा ? यद्यव्यापकः, तदा व्यापकत्वेनोपकर मानो न कञ्चिदथं पुष्णाति । अथ व्यापकः, सोऽपि न श्रु त्या सामयेन वाऽवगम्यते । स्वशक्त्या दृष्टान्तानुग्रहेण वा पक्षान्तरेऽपि तुल्यवृत्तित्वा. दिति सिद्धमतो निर्दोषात्साधनादशेषज्ञत्वमिति ।
यच्चाभावप्रमाणकवलितसत्ताकत्वमशेषज्ञ त्वस्येति, तदयुक्तमेव; अनुमानस्य
रूप का साक्षात्कारी होता है, इस प्रकार के ) दृष्टान्त के बल से कहें तो तद्ग्रहण स्वभावी होकर प्रक्षीणबन्ध प्रत्ययत्व हेतु ( हरि हर हिरण्य गर्भ आदि ) पक्षान्तर में भी समान रूप से रहता है।
समाधान-भाट्ट नामक असर्वज्ञवादियों का यह कथन अपने वध के 'लिए कृत्या ( मारि ) के उठाने के समान है, क्योंकि इस प्रकार के विशेष 'प्रश्न सर्वज्ञ सामान्य की स्वीकृतिपूर्वक ही पूछे जा सकते हैं । अन्यथा 'किसी के भी सर्वज्ञपना नहीं है ऐसा कहना चाहिए। आपके मत में उभयवादिप्रसिद्ध अनुमान में भी ( अहंत के सर्वज्ञपना है या अनर्हत् के ) यह दोष सम्भव होने से जाति नाम दूषण रूप उत्तर होता है ( असत् उत्तर को जाति कहते हैं)।
प्रसिद्ध अनुमान में भी यह दोष कैसे संभव है ? इसकी व्याख्या करते हैं। शब्द नित्य है; क्योंकि उसका प्रत्यभिज्ञान होता है, ऐसा कहे जाने पर व्यापक शब्द के नित्यता सिद्ध करते हैं या अव्यापक के ? यदि अव्यापक के नित्यता सिद्ध करते हैं तो व्यापक के रूप में कल्पना किया गया शब्द किसी अर्थ को पुष्ट नहीं करता है। यदि व्यापक शब्द के नित्यता है तो उसकी व्यापक रूप नित्यता श्रुति और सामर्थ्य से नहीं जानी जाती है । स्वशक्ति से या दृष्टान्त के अनुग्रह से कहने पर अव्यापक नित्य शब्द रूप पक्षान्तर में भी हेतु का रहना समान है। इस प्रकार ( तद् ग्रहण स्वभावत्वे सति प्रक्षीण प्रतिबन्ध प्रत्ययत्वात् रूप) निर्दोष साधन से •सर्वज्ञता सिद्ध है।
आपने जो कहा कि सर्वज्ञता की सत्ता तो अभाव प्रमाण से कवलित
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