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________________ द्वितीयः समुद्देशः तद्ग्राहकस्य सद्भावे सति प्रमाणपञ्चकाभावमूलस्याभावप्रमाणस्योपस्थापनायोगात् । गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् । मानसं नास्तिताज्ञानं जायतेऽक्षानपेक्षया ।। ६ ।। इति च भावत्कं दर्शनम् । तथा च कालत्रय-त्रिलोकलक्षणवस्तुसद्भावग्रहणेऽ-. न्यत्रान्यदा गृहीतस्मरणे च सर्वज्ञनास्तिताज्ञानमभावप्रमाणं युक्तम्, नापरथा । न च कस्यचिदग्दिशितस्त्रिजगत्रिकालज्ञानमुपपद्यते, सर्वज्ञस्यातीन्द्रियस्य वा ।। सर्वज्ञत्वं हि चेतोधर्मतयाऽतीन्द्रियम्, तदपि न प्रकृतपुरुष विषयमिति कथमभावप्रमाणमुदयमासादयेत् ; असर्वज्ञस्य तदुत्पाद-सामग्या असम्भवात् । सम्भवे वा तथा ज्ञातुरेव सर्वज्ञत्वमिति । अत्राधुना तदभावसाधनमित्यपि न युक्तम; सिद्धसाध्यतानुषङ्गात् । ततः सिद्धं मुख्यमतीन्द्रियज्ञानमशेषतो विशदम् । है, यह बात ठोक नहीं है, क्योंकि जब सर्वज्ञता के ग्राहक अनुमान का सद्भाव पाया जाता है, तब प्रत्यक्षादि पाँच प्रमाणों का अभाव जिसका मल है, ऐसे अभाव प्रमाण के उपस्थापन का अयोग है अर्थात् अभाव प्रमाण को आवश्यकता नहीं है । श्लोकार्थ-वस्तु के सद्भाव को ग्रहण कर ( घट रहित भूतल को ग्रहण कर ) और प्रतियोगी ( घट ) का स्मरण कर ( बाह्य ) इन्द्रियों की अपेक्षा से रहित मानस ज्ञान होता है ।। ६ ।। ऐसा आप लोगों का मत है। ऐसा होने पर त्रिकाल, त्रिलोकवर्ती समस्त वस्तुओं के सद्भाव को ग्रहण करने पर अन्यत्र- क्षेत्रान्तर में और अन्यदा-कालान्तर में जाते हुए सर्वज्ञ का स्मरण होने पर सर्वज्ञ की नास्तिता को जो ज्ञात हो, उसे अभाव प्रमाण मानना युक्त है, अन्यथा नहीं । किंचित् जानने वाले के त्रिकाल का ज्ञान नहीं हो सकता । न वह सर्वज्ञ और अतीन्द्रिय ज्ञान का जानकार हो सकता है । सर्वज्ञता चित्त का धर्म होने के कारण अतीन्द्रिय है। वह भी साधारण पुरुष का विषय नहीं हो सकती। अतः अभाव प्रमाण की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? असर्वज्ञ के अभाव प्रमाण को उत्पन्न करने वाली सामग्री का मिलना असम्भव है। यदि असर्वज्ञ के सर्वदेश और सर्वकाल का ज्ञान मानकर सर्वज्ञ के अभाव की प्रतिपादक सामग्री का सद्भाव सम्भव माना जाय तो ज्ञाता पुरुष के ही सर्वज्ञता सिद्ध हो जाती है। यहाँ पर अब सर्वज्ञ नहीं है, यदि ऐसा कहते हो तो वह भी युक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर सिद्ध साध्यता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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