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________________ द्वितीयः समुद्देशः प्रत्युत ज्ञानातिशयवतो वचनातिशयस्यैव सम्भवात् । एतेन पुरुषत्वमपि निरस्तम् । पुरुषत्वं हि रागादिदोषदूषितम्, तदा सिद्धसाध्यता । तददूषितं तु विरुद्धम् वैराग्य ज्ञानादिगुणयुक्तपुरुषत्वस्याशेषज्ञत्वमन्तरेणायोगात् । पुरुषत्वसामान्यं तु सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकमिति सिद्धं सकलपदार्थसाक्षाकारित्वं कस्यचित्पुरुषस्यातोऽनुमानात् । इति न 'प्रमाणपञ्चकाविषयत्वमशेषज्ञस्य । अथास्मिन्ननुमानेऽर्हतः सर्ववित्त्वमनहतो वा? अनर्हतश्चदर्हद्वाक्यमप्रमाणं स्यात् । अर्हतश्चेत्सोऽपि न श्रुत्या सामर्थ्येन वाऽवगन्तु पार्यते । स्वशक्त्या दृष्टा जाता है कि) जो ज्ञानातिशय वाले पुरुष के वचनों का अतिशय सम्भव है। वक्तृत्व असर्वज्ञपने का साधन है, इसके निराकरण द्वारा पुरुषत्व हेतु का भी निराकरण हो गया। पुरुषत्व से तात्पर्य आप रागादि दोष से दूषित पुरुष से है या रागादि दोष से रहित पुरुष से है या पुरुष सामान्य से है। यदि पुरुषत्व का अभिप्राय रागादि दोष से दूषित पुरुष से है तो सिद्ध साध्यता है। यदि पुरुषत्व से अभिप्राय रागादि दोष से अदूषित पुरुष से है तो यह हेतु विरुद्ध हेत्वाभास हो जाता है, क्योंकि राग का अभाव वीतरागता को, द्वेष का अभाव शान्त मनोवृत्ति को तथा मोह का अभाव सर्वज्ञता को सिद्ध करता है। वैराग्य, ज्ञानादिगुण युक्त पुरुषपने का सर्वज्ञत्व के बिना योग नहीं होता है। पुरुषत्व सामान्य संदिग्धविपक्ष व्यावृत्ति है, क्योंकि असर्वज्ञता का विपक्ष सर्वज्ञता है, उसका किसी पुरुष में रहना सम्भव है। अतः विपक्ष से व्यावृत्ति सन्दिग्ध है। इस प्रकार कोई पुरुष समस्त पदार्थों का माक्षात्कारी है, क्योंकि उन पदार्थों का ग्रहण स्वभावो होकर प्रतिबन्ध प्रत्यय ( ज्ञान ) वाला है, इस अनुमान से किसी पुरुष का समस्त पदार्थ साक्षात्कारित्व सिद्ध है। अतः सर्वज्ञ प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति इन पाँच प्रमाणों का विषय नहीं है, ऐसा नहीं है। शंका-इस अनुमान में सर्वज्ञत्व अर्हत् के है या अनर्हत ( बुद्धादि) के है ? यदि सर्वज्ञपना अनर्हत् के है तो अरहन्त भगवान् के वाक्य अप्रमाण हो जायँगे। यदि वह सर्वज्ञपना अरहन्त के है तो वह अरहन्त आगम अथवा अविनाभावित्व रूप सामर्थ्य से नहीं जाना जा सकता। स्वशक्ति ( अविनाभावोलिङ्ग) से अथवा (तिमिर रोग रहित लोचन १. प्रत्यक्षानुमानागमोपमानार्थापत्तिप्रमाणपञ्चकम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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