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________________ प्रस्तावना अशुद्ध पाठोवाळी कोई एक ज प्रतिमांथी परंपराए उतरी आवेली छे ए चोक्कस छे । उपरनी चर्चा उपरथी प्रतिओनी वंशावली जे प्रमाणे फलित थाय छे ते अमे प्राक्कथन पृ० ३६ मां आपेली छे । नयचक्रवृत्तिना संशोधननी सामग्री भा० अने य० प्रतिनी जे विशिष्टताओ छे ते विषे अमे पहेलां विस्तारथी जणावी गया छीए । आ बनेय जातनी प्रतिओनी मददथी पाठशुद्धि करवामां अमने घणी ज सरलता थई छे, तेम छतांय लेखकदोषथी पूर्वकाळथी चाली आवेली सेंकडो अशुद्धिओ बनेय प्रतिओमां समान रूपे जोवा मळे छ । आ अशुद्धिओ दूर करवा माटे व्याकरणना नियमो, दार्शनिक परिभाषा, ग्रंथकारनी शैली, नयचक्रवृत्तिमां आवता पूर्वापर संदर्भो, अनेक दार्शनिक ग्रंथो तेमज बीजा पण विविध विषयना ग्रंथोनो ज्या ज्यां शक्य होय त्यां अमे उपयोग कर्यो छे, अने सहायभूत थएला ग्रंथोना पाठोनो उल्लेख टिप्पणोमां अनेक स्थळे कर्यो छे । ते उपरांत प्राचीन लिपिना अक्षरोनी आकृतिने बराबर न समजी शकवाथी पाछळना लेखकोए अनेक स्थळे जे अक्षर परिवर्तन करी नांख्युं छे तेनो पण सूक्ष्मताथी अभ्यास करीने तेना आधारे सेंकडो स्थळे अमे अत्यंत खात्री पूर्वक पाठशुद्धि करी शक्या छीए, जेमके पृ० १६ पं० १४ मां 'शब्द-स्पर्शरूपरसगन्धात्मा पृथिवी कर कटलक्षणा वेति' आवो पाठ तमाम हस्तलिखित प्रतिओमां छे, अहीं 'करकटलक्षणा' आ पाठ अशुद्ध लागवाथी 'कर्कशलक्षणा' एवो सुधारो मनथी अमे कल्प्यो तो खरो परंतु आगळ पृ० ४७ पं० ६ मां पण 'करकट' एवो पाठ अमारी दृष्टिमां आव्यो । 'लेखको सर्वत्र एक जातनी अशुद्धि करे' ए अमारी बुद्धिमां उतयुं नहिं तेथी 'कर्कशलक्षणा' एवो सुधारो अमे पडतो मूक्यो । त्यार पछी रशियामां पेट्रोग्राड (वर्तमान लेनिनग्राड ) थी 'बिब्लिओथेका बुद्धिका' सीरिजमां प्रकाशित थएला बौद्धाचार्य शान्तिदेव रचित शिक्षासमुच्चयमां (पृ० २४५ मां) “कतमश्च महाराज ! बाह्यः पृथिवीधातुः ? यत् किञ्चिद् बाह्यं कक्खटत्वं खरगतमनुपात्तमयमुच्यते बाह्यः पृथिवीधातुः" आवो उल्लेख एक वखत अमारी नजरे पड्यो, ते जोतां ज खात्री थई गई के नयचक्रवृत्तिमा साचो पाठ 'कक्खटलक्षणा' ज होवो जोईए । 'कक्खटलक्षणा पृथिवी' ए बौद्धोनो मत छ । त्यार पछी लिपि विषे विचार करतां जणायुं के प्राचीन देवनागरी लिपिमां क्ख अक्षर रक एम ज लखातो हतो एटले 'कक्खटलक्षणा' पाठनी सत्यता विषे कोई पण शंकाने अवकाश ज न रह्यो । आ प्रमाणे भिन्न भिन्न ग्रंथोनी सहायथी तेमज लिपिसादृश्यमूलक अक्षर परिवर्तनना निरीक्षणथी अमे सेंकडो स्थलोए पाठोने यथावत् शुद्ध करी शक्या छीए । आ ग्रंथनी हस्तलिखित प्रतिओमां जोवामां आवता लिपिसादृश्यमूलक अक्षरपरिवर्तननां केटलांक उदाहरणो प्राक्कथन पृ० ३७ मां अमे आपेलां छे । ते उपरांत पृष्ठमात्रा ( पडिमात्रा ) नी विपरीत योजनाथी पण घणा अशुद्ध पाठो हस्तलिखित प्रतिमां छे, टिप्पणोमां आपेला पाठांतरो उपरथी वाचको आ संबंधमां सारी रीते समजी शकशे । ___ टिबेटन ग्रंथोनो पण संशोधनमा उपयोग करवामां आव्यो छे; जेमके पृ० ९३ पं० २१ मां प्रारंभमां बधी ज प्रतिओमां 'तददृष्टौ' पाठ मळ्यो हतो, परंतु बौद्ध ग्रंथ हस्तवालप्रकरण के जेमांथी ए पाठ उद्धृत करवामां आव्यो जणाय छे तेना टिबेटन भाषांतरने आधारे त्यां तदंशदृष्टौ' पाठो होवो जोईए एवो अमे निर्णय को हतो, अने ते पछी मळी आवेली भा० प्रतिमां पण 'तदंशदृष्टौ' एवो पाठ मळी १ आगमग्रंथोमा आठ स्पर्शोना निरूपण मां 'कक्खड' स्पर्शनो उल्लेख आवे छे त्यां पण 'कक्खट' स्पर्श ज विवक्षित छ। कक्खट-खर कठिन। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001108
Book TitleDvadasharam Naychakram Part 1 Tika
Original Sutra AuthorMallavadi Kshamashraman
AuthorSighsuri, Jambuvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1966
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Nay, & Nyay
File Size19 MB
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