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श्री अनुयोगद्वारसूत्रस्य द्वितीयविभागस्य अष्टमं परिशिष्टम् - विश्वप्रहेलिकानुसारेण
इस प्रकार दोनों विधियों से निकाला गया मान एक दूसरे से बहुत निकट का है, फिर भी श्री जैन द्वारा किया गया यह अंकीकरण निम्न कारणों के आधार पर यथार्थ नहीं माना जा सकता :
१. इस प्रकार से निकाले गए रज्जू का मूल्य १०२२ माईल से भी कम है, जबकि रज्जु का मूल्य असंख्यात योजन माना गया है, जिसका उल्लेख स्वयं श्री जैन ने भी किया है। 'असंख्यात' की अपेक्षा में १०२२ की संख्या नगण्य-सी हो जाती है।
२. 'क्षण' के स्थान में प्रतिविपलांश' का मूल्य लिया गया है, यह उपयुक्त नहीं लगता । 'क्षण' का वास्तविक अर्थ काल का सूक्ष्मतम अंश होना चाहिए । इस बात का स्वीकार स्वयं श्री जैन ने भी किया है। 'क्षण' के स्थान में प्रतिविपलांश का मूल्य स्थापित करने से ‘रज्जु' का मूल्य वास्तविक मान से बहुत ही कम हो गया है।
३. आइन्स्टीन के विश्व-सम्बन्धी दिए गए आंकडे अब मान्य नहीं रहे हैं। विश्व-विस्तार के सिद्धान्त के अनुसार तो विश्व का निश्चित आयतन हो ही नहीं सकता ।
इस प्रकार की वैज्ञानिक सदिग्धताओं से और गणित-सम्बन्धी उपयुक्त सूत्रों का उपयोग न होने से श्री जैन द्वारा किया गया अंकीकरण यथार्थ नहीं लगता । इन कारणों के आधार पर यह निःसंदिग्धतया कहा जा सकता है कि रज्जु का यथार्थ अंकीकरण नहीं हुआ है। कोलब्रूक ने भी केवल रज्जु की परिभाषा ही दी है, गणना नहीं की है।
अब तक अन्य किसी विद्वान् के द्वारा रज्जु का अंकीकरण नहीं हुआ, ऐसा लगता है। यहां पर हम रज्जु का अंकीकरण निम्नोक्त दो प्रकार से करने का प्रयत्न करेंगे ।
१. कोलब्रूक द्वारा दी गई व्याख्या का उपयोग
कोलब्रूक की व्याख्या में क्षण' के स्थान में काल का सूक्ष्मतम अंश 'समय' का स्थापन होना चाहिए। जैन दर्शन के अनुसार 'समय' काल का अविभाज्य अंश है । ६ महीने के समयों की संख्या निकालने के लिए पहले एक आवलिका के समयो की संख्या निकालनी आवश्यक है । एक आवलिका के समयों की संख्या उतनी होती है, जितना कि जघन्य-युक्त-असंख्यात (जन्यु०अ०) का मान होता है। ५ जघन्य-युक्त-असंख्यात' की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि इस संख्या का मान उतना है, जितना 'जघन्य-परीत-असंख्यात' (ज०प०अ०) को 'जघन्य-परीत-असंख्यात' से गुणने पर होता है। किन्तु इसकी सही गणना करना अत्यन्त ही जटिल कार्य है।
इस संख्या को अंको के द्वारा व्यक्त करना भी अति कठिन कार्य है । रज्जु के मान की गणना करने के लिए हम यहां पर एक कल्पना कर सकते है कि 'उत्कृष्ट संख्यात' के स्थान पर हम ‘शीर्षप्रहेलिका'
१. देखें, वही, पृ० ११६, टिप्पण सं० १ । २. देखें वही पृ० ११८ । ३. देखे परिशिष्ट-२। ४. देखे परिशिष्ट - ३ । ५. अनुयोगद्वारसूत्र, 'असंख्यासंख्यक' विषय; जघन्ययुक्तासंख्य, तदावलीसमयैः समम् । - लोकप्रकाश, सर्ग १, श्लोक १७०। ६. देखें, परिशिष्ट - ३ । ७. देखें, वही ।
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