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________________ श्री अनुयोगद्वारसूत्रस्य द्वितीयविभागस्य अष्टमं परिशिष्टम् - विश्वप्रहेलिकानुसारेण १६० नामक संख्या का प्रयोग कर सकते है ।" ज०प०अ० का मान परिभाषा के अनुसार 'उत्कृष्ट संख्यात' से केवल एक अधिक है । अर्थात्, अब क्योंकि, ज०प०अ० = और हमारी कल्पना के आधार पर इसलिए, उत्कृष्ट संख्यात + १ ज०यू०अ० = ( ज०प०अ० ) ( ज०प० अ० ) उत्कृष्ट संख्यात शीर्ष प्रहेलिका ज००अ० = = Jain Education International ( शीर्षप्रहेलिका + १) शीर्षप्रहेलिका का मान श्वेताम्बर परम्परा में दो प्रकार से मिलता है माथुरी वाचना' पर आधारित परम्परा के अनुसार शीर्षप्रहेलिका का मान(८४,००,०००२८) है, जो कि अंको में लिखने पर ( शीर्षप्रहेलिका + १ ) ७५८,२६३,२५३,०७३, ०१०, २४१, १५७, ९७३, ५६९, ९७५, ६९६, ४०६, २१८,९६६,८०८, १४० ०८०,१८३,२९६ x १० - जिसको संक्षेप में लिखने पर, ७.५८ x १० १९३ लगभग होता है । वालभ्य वाचना' के अनुसार यह मान - ( ८४,००,००० ३६) अर्थात् १८७,९५५,१७९,५५०, ११२,५९५, ४१९,००९, ६९९,८१३,४३०,७७०,७९७,४६५,४९४, २६१,९७७,७४७, ६५७, २५७, ३४५, ७१८,६८१,६ * १०१८० जिसको संक्षिप्त में लिखने पर, १.८७ x १० २४९ लगभग होता है । शीर्षप्रहेलिका के उक्त मानों में से हम यहां पर न्यूनतम मान अर्थात् माथुरी वाचना के अनुसार दिए गए मान का उपयोग करेंगे । शीर्षप्रहेलिका का मान एक की अपेक्षा में बहुत बडा है, अतः ज० यु०अ० की परिभाषा में ( शीर्षप्रहेलिका + १) के स्थान पर हम 'शीर्षप्रहेलिका' ले सकते है । १. यद्यपि यह कल्पना मूलतः यथार्थ नहीं है, क्योंकि 'उत्कृष्ट संख्यात' का मान 'शीर्षप्रहेलिका' से बहुत अधिक है; फिर भी 'रज्जु' के मान की जघन्य मर्यादा को निर्धारित करने के लिए यह कल्पना करनी होगी । शीर्षप्रहेलिका के लिए देखें अनुयोगद्वार : कालसमवतार विषय; भगवतीसूत्र, ६-७ - २४६, २४७ तथा परिशिष्ट - २ । २. लोकप्रकाश, २९११,१२ । ३. वही, २९-२१ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001107
Book TitleAgam 45 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Part 02
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorJambuvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2000
Total Pages560
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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