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श्री अनुयोगद्वारसूत्रस्य द्वितीयविभागस्य अष्टमं परिशिष्टम् - विश्वप्रहेलिकानुसारेण
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नामक संख्या का प्रयोग कर सकते है ।" ज०प०अ० का मान परिभाषा के अनुसार 'उत्कृष्ट संख्यात' से केवल एक अधिक है । अर्थात्,
अब क्योंकि,
ज०प०अ० =
और हमारी कल्पना के आधार पर
इसलिए,
उत्कृष्ट संख्यात + १
ज०यू०अ० = ( ज०प०अ० )
( ज०प० अ० )
उत्कृष्ट संख्यात शीर्ष प्रहेलिका
ज००अ० =
=
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( शीर्षप्रहेलिका + १)
शीर्षप्रहेलिका का मान श्वेताम्बर परम्परा में दो प्रकार से मिलता है माथुरी वाचना' पर आधारित परम्परा के अनुसार शीर्षप्रहेलिका का मान(८४,००,०००२८) है, जो कि अंको में लिखने पर
( शीर्षप्रहेलिका + १ )
७५८,२६३,२५३,०७३, ०१०, २४१, १५७, ९७३, ५६९, ९७५, ६९६, ४०६, २१८,९६६,८०८, १४०
०८०,१८३,२९६ x १०
-
जिसको संक्षेप में लिखने पर, ७.५८ x १० १९३ लगभग होता है । वालभ्य वाचना' के अनुसार यह मान - ( ८४,००,००० ३६) अर्थात्
१८७,९५५,१७९,५५०, ११२,५९५, ४१९,००९, ६९९,८१३,४३०,७७०,७९७,४६५,४९४,
२६१,९७७,७४७, ६५७, २५७, ३४५, ७१८,६८१,६
* १०१८०
जिसको संक्षिप्त में लिखने पर, १.८७ x १० २४९ लगभग होता है ।
शीर्षप्रहेलिका के उक्त मानों में से हम यहां पर न्यूनतम मान अर्थात् माथुरी वाचना के अनुसार दिए गए मान का उपयोग करेंगे ।
शीर्षप्रहेलिका का मान एक की अपेक्षा में बहुत बडा है, अतः ज० यु०अ० की परिभाषा में ( शीर्षप्रहेलिका + १) के स्थान पर हम 'शीर्षप्रहेलिका' ले सकते है ।
१. यद्यपि यह कल्पना मूलतः यथार्थ नहीं है, क्योंकि 'उत्कृष्ट संख्यात' का मान 'शीर्षप्रहेलिका' से बहुत अधिक है; फिर भी 'रज्जु' के मान की जघन्य मर्यादा को निर्धारित करने के लिए यह कल्पना करनी होगी । शीर्षप्रहेलिका के लिए देखें अनुयोगद्वार : कालसमवतार विषय; भगवतीसूत्र, ६-७ - २४६, २४७ तथा परिशिष्ट - २ । २. लोकप्रकाश, २९११,१२ । ३. वही, २९-२१ ।
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