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પ્રસ્તાવના
४४ रइवक्का-सं० रतिवाक्या नामक दशवैकालिकसूत्रकी प्रथम चूलिकाकी व्याख्या (पत्र २७३-२) “अन्ये तु व्याचक्षते'' ऐसा निर्देश करके अगस्त्यसिंहीया चूर्णीका मतान्तर दिया है। इसके सिवा कहीं परभी इस चूर्णिके नामका उल्लेख नहीं किया है।
___ इस अगस्त्यसिंहीया चूर्णिमें तत्कालवर्ती संख्याबन्ध वाचनान्तर-पाठभेद, अर्थभेद एवं सूत्रपाठोंकी कमी-बेशीका काफी निर्देश है, जो अतिमहत्त्वके हैं।
यहाँ पर ध्यान देने जैसी एक बात यह है कि - दोनों चूर्णिकारोंने अपनी चूर्णीमें दशवैकालिकसूत्र उपर एक प्राचीन चूर्णी या वृत्तिका समान रूपसे उल्लेख रइवक्काचूलिका की चूर्णीमें किया है। जो इस प्रकार है"एत्थ इमातो वृत्तिगतातो पदुद्देसमेत्तगाधाओ । जहा -
दुक्खं च दुस्समाए जीविउं जे १ लहुसगा पुणो कामा २। सातिबहुला मणुस्सा ३ अचिरट्ठाणं चिमं दुक्खं ४ ॥१॥ ओमजणम्मि य खिंसा ५ वंतं च पुणो निसेवियं भवति ६ । अहरोवसंपया वि य ७ दुलभो धम्मो गिहे गिहिणो ८ ॥२॥ निवयंति परिकिलेसा ९ बंधो ११ सावज्जजोग गिहिवासो १३ । एते तिण्णि वि दोसा न होति अणगारवासम्मि १०-१२-१४ ॥३॥ साधारणा य भोगा १५ पत्तेयं पुण्ण-पावफलमेव १६ । जीयमवि माणवाणं कुसग्गजलचंचलमणिच्चं १७ ।।४।। णत्थि य अवेदयित्ता मोक्खो कम्मस्स निच्छओ एसो १८ ।
पदमट्ठारसमेतं वीरवयणसासणे भणितं ॥५॥" - अगस्त्यसिंहीया चूर्णी
दूसरी मुद्रित चूर्णीमें (पत्र ३५८) “एत्थ इमाओवृत्तिगाधाओ। उक्तं च' ऐसा लिखकर उपर दी हुई गाथायें उद्धृत कर दी हैं।
___इन उल्लेखोंसे यह निर्विवाद है कि- दशवैकालिकसूत्र के उपर इन दो चूर्णियोंसे पूर्ववर्ती एक प्राचीन चूर्णी भी थी, जिसका दोनों चूर्णीकारोने वृत्ति नामसे उल्लेख किया है। इससे यह भी कहा जा सकता है कि - आगमोके उपर पद्य और गद्यमें व्याख्याग्रन्थ लिखनेकी प्रणालि अधिक पुराणी है। और इससे हिमवंतस्थविरावलीमें उल्लिखित निम्न उल्लेख सत्यके समीप पहुंचता है -
तेषामार्यसिंहानांस्थविराणांमधुमित्रा-ऽऽर्यस्कन्दिलाचार्यनामानौ द्वौ शिष्यावभूताम्।आर्यमधुमित्राणां शिष्याआर्यगन्धहस्तिनोऽतीवविद्वांस:प्रभावकाश्चाभवन् । तैश्चपूर्वधरस्थविरोत्तंसोमास्वातिवाचकरचिततत्त्वार्थोपरि अशीतिसहस्रश्लोकप्रमाणं महाभाष्यं रचितम् । एकादशाङ्गोपरि चाऽऽर्यस्कंन्दिलस्थविराणामुपरोधतस्तैर्विवरणानि रचितानि । यदुक्तं तद्रचिताऽऽचाराङ्गविवरणान्ते यथाथेरस्स महुमित्तस्स सेहेहिं तिपुव्वनाणजुत्तेहिं । मुणिगणविवंदिएहिं ववगयरायाइदोसेहिं ॥१॥ बंभद्दीवियसाहामउडेहिं गंधहत्थिविबुहेहिं । विवरणमेयं रइयं दोसयवासेसु विक्कमओ ॥२॥
__ आचाराङ्गसूत्रके इस गन्धहस्तिविवरणका उल्लेख आचार्य श्रीशीलाङ्कने अपनी आचाराङ्गवृत्तिके उपोद्घातमें भी कीया है। कुछ भी हो, जैन आगमोके उपर व्याख्या लिखनेकी प्रणाली अधिक प्राचीन है।
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