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________________ ४3 પ્રસ્તાવના पट्टावलीयोमें पाये नहीं जाते हैं। कल्पसूत्र की पट्टावलीमें जो श्रीऋषिगुप्त का नाम है वे स्थविर आर्यसुहस्ति के शिष्य होनेके कारण एवं खुद वज्रस्वामी से भी पूर्ववर्ती होनेसे श्रीअगस्त्यसिंहगणि के गुरु ऋषिगुप्त से भिन्न हैं। कल्पसूत्र की स्थविरावली का उल्लेख इस प्रकार है - थेरस्स णं अज्जसुहत्थिस्स वासिट्ठसगुत्तस्स इमे दुवालस थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया होत्था । तंजहा थेरे य अज्जरोहण १ जसभद्दे २ मेहगणी ३ य कामिड्डी ४ । सुठ्ठिय ५ सुप्पडिबुद्धे ६ रक्खिय ७ तह रोहगुत्ते ८ य ।।१।। इसिगुत्ते ९ सिरिगुत्ते १० गणी य बंभे ११ गणी य तह सोमे १२।। दस दो य गणहरा खलु एए सीसा सुहत्थिस्स ।।२।। स्थविर आर्यसुहस्ति श्रीवज्रस्वामीसे पूर्ववर्ती होनेसे ये ऋषिगुप्त स्थविर दशकालिकचूर्णिप्रणेता श्रीअगस्त्यसिंहके गुरु श्रीऋषिगुप्त क्षमाश्रमणसे जुदा है, यह स्पष्ट है। आवश्यकचूर्णी, जिसके प्रणेताके नामका कोई पता नहीं है, उसमें तपसंयमके वर्णनप्रसंगमें आवश्यकचूर्णिकारने इस प्रकार दशवैकालिकचूर्णीका उल्लेख किया है तवो-दुविहो-बज्झो अब्भंतरो य। जधा दसवेतालियचुण्णीए चाउलोदणंतं (चालणेदाणंतं) अलुद्धेणं णिज्जरहें साधूसु पडिवायणीयं ८ । (आवश्यकचूर्णी विभाग २ पत्र ११७) आवश्यकचूर्णिके इस उद्धरणमें दशवकालिकचूर्णीका नाम नजर आता है । दशवैकालिकसूत्रके उपर दो चूर्णीयां आज प्राप्त हैं - एक स्थविर अगस्त्यसिंहप्रणीत और दूसरीजोआगमोद्धारक श्रीसागरानन्दसूरि महाराजने रतलामकी श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी जैन श्वेताम्बर संस्थाकी ओरसे सम्पादित की है, जिसके कर्ताके नामका पता नहीं मीला है और जिसके अनेक उद्धरणयाकिनीमहत्तरापत्र आचार्य श्रीहरिभद्रसरिनेअपनीदशवैकालिकसत्रकी शिष्यहितावृत्तिमें स्थान स्थान पर वृद्धविवरणके नामसे दिये हैं। इन दो चूर्णियों से आवश्यकचूर्णिकार को कौनसी चूर्णि अभिप्रेत है ?, यह एक कठिनसी समस्या है। फिर भी आवश्यकचूर्णी के उपर उल्लिखित उद्धरणको गौरसे देखनेसे अपन निर्णयके समीप पहुंच सकते हैं। इस उद्धरणमें "चाउलोदणंतं' यह पाठ गलत हो गया है। वास्तवमें "चाउलोदणंतं" के स्थानमें मूलपाठ “चालणेदाणंतं" ऐसा पाठ होगा। परन्तु मूलस्थानको विना देखे ऐसे पाठोके मूल आशयका पता न चलने पर केवल शाब्दिक शुद्धि करके संख्याबन्ध पाठोंको विद्वानोने गलत बनाने के संख्याबन्ध उदाहरण मेरे सामने हैं । दशवैकालिकसूत्र की प्राप्त दोनों चूर्णियोंको मैंने बराबर देखी है, किन्तु "चाउलोदणंतं" का कोई उल्लेख उनमें नहीं पाया है और इसका कोई सार्थक सम्बन्धभी नहीं है। दशवैकालिकसूत्रकी अगस्त्यसिंहीया चूर्णिमें तपके निरूपणकी समाप्तिके बाद “चालणेदाणिं' (पत्र १९) ऐसा चूर्णिकारने लिखा है, जिसको आवश्यकचूर्णिकारने “चालणेदाणंतं" वाक्यद्वारा सूचित किया है। इस पाठको बादके विद्वानोने मूल स्थानस्थित पाठको बिना देखे गलत शाब्दिक सुधारा कर बिगाड दिया - ऐसा निश्चितरूपसे प्रतीत होता है। अत: मैं इस निर्णय पर आया हूं कि- आवश्यकचूर्णिकारनिर्दिष्ट दशवैकालिकचूर्णि अगस्त्यसिंहीया चूर्णी ही है । और इसी कारण अगस्त्यसिंहीया चूर्णी आवश्यकचूर्णिके पूर्वकी रचना है। आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिने अपनी शिष्यहितावृत्तिमें इस चूर्णीका खास तौरसे निर्देश नहीं किया है। सिर्फ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001106
Book TitleAgam 45 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Part 01
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorPunyavijay, Jambuvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1999
Total Pages540
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, G000, G010, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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