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________________ ૪૨ પ્રસ્તાવના तेसिं सीसेण इमं उत्तरायणाण चुण्णिखंडं तु । रइयं अणुग्गहत्थं सीसाणं मंदबुद्धीणं ॥३॥ जं एत्थं उस्सुत्तं अयाणमाणेण विरतितं होज्जा । तं अणुओगधरा मे अणुचितेउं समारंतु ॥४॥ । षट्त्रिंशोत्तराध्ययनचूर्णी समाप्ता ॥ ग्रन्थाग्रं प्रत्यक्षरगणनया ५८५० ॥ (१८) नन्दीसूत्रचूर्णि। अन्त:णि रे ण ग म त ण ह स दा जि या (?) पसुपतिसंखगजट्ठिताकुला। कमट्टिता धीमतचिंतियक्खरा फुडं कहेयंतऽभिधाण कत्तुणो ॥१॥ शकराज्ञो पञ्चसु वर्षशतेषु व्यतिक्रान्तेषु अष्टनवतेषु नन्द्यध्ययनचूर्णी समाप्ता इति ।। ग्रन्थाग्रम् १५००।। (१९) अनुयोगद्वारसूत्र चूर्णि । अन्त:चरणमेव गुणो चरणगुणो । अहवा चरणं चारित्रम्, गुणा खमादिया अणेगविधा, तेसु जो जहट्ठिओ साधू सो सव्वणयसम्मतो भवतीति ।। ।। कृति: श्रीश्वेताम्बराचार्यश्रीजिनदासगणिमहत्तरपूज्यपादानामनुयोगद्वाराणां चूर्णिः ॥ (२०) पाक्षिकसूत्रचूर्णि । अन्त:अनुष्टप्भेदेन छंदसां ग्रंथाग्रं चत्वारि शतानि ४०० । पाक्षिकप्रतिक्रमणचूर्णी समाप्तेति ॥ शुभं भवतु सकलसंघस्य । मंगलं महाश्रीः॥ १. उपर जिन वीस चूर्णियोके आदि-अन्तादि अंशोंके उल्लेख दिये हैं, इनके अवलोकनसे प्रतीत होता है कि- प्रज्ञापनासूत्रके बारहवें शरीरपदकी चूर्णि श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण कृत है। आज इसकी कोई स्वतन्त्र हस्तप्रति ज्ञानभंडारोमें उपलब्ध नहीं है, किन्तु श्रीजिनदासगणि महत्तर और आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिने क्रमश: अपनी अनुयोगद्वारसूत्र उपरकी चूर्णि और लघुवृत्तिमें इस चूर्णिको समग्र भावसे उद्धृत कर दी है, इससे इसका पता चलता है। श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने प्रज्ञापनासूत्र उपर सम्पूर्ण चूर्णी की हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता है। इसका कारण यह है कि- प्राचीन जैन ज्ञानभंडारों में प्रज्ञापनासूत्रचूर्णीकी कोई हाथपोथीप्राप्त नहीं है। दूसरा यह भी कारण है कि- आचार्य श्रीमलयगिरिने अपनी प्रज्ञापनावृत्तिमें सिर्फ शरीरपदकी वृत्तिके सिवा और कहीं भी चूर्णीपाठका उल्लेख नहीं किया है। अत: ज्ञात होता है कि श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने सिर्फ प्रज्ञापनासूत्रके बारहवें शरीरपद पर ही चूर्णी की होगी। आचार्य मलयगिरिने अपनी वृत्तिमें चूर्णीका छ स्थान पर उल्लेख किया है। २. नन्दीसूत्रचूर्णी, अनुयोगद्वारचूर्णी और निशीथसूत्रचूर्णी के प्रणेता श्रीजिनदासगणि महत्तर हैं। जो इन चूर्णीयोके अन्तिम उल्लेखसे निर्विवाद रूपसे ज्ञात होता है। निशीथचूर्णि के प्रारम्भमें आपने अपने विद्यागुरुका शुभनामश्रीप्रद्युम्न क्षमाश्रमण बतलाया है। संभव है कि आपके दीक्षागुरु भी ये ही हों। इन चूर्णियोंकीरचना जिनभद्र गणिक्षमाश्रमणके बादकी है। इसका कारण यह है कि - नन्दीचूर्णि में चूर्णिकारने केवलज्ञान-केवलदर्शनविषयक युगपदुपयोग-एकोपयोग-क्रमोपयोगकी चर्चा की है एवं स्थान स्थान पर जिनभद्रगणि के विशेषावश्यकभाष्य की गाथाओंका उल्लेख भी किया है। अनुयोगद्वारचूर्णी में तो आपने श्रीजिनभद्रगणि की शरीरपदचूर्णी को साद्यन्त उद्धृत कर दी है। अत: ये तीनों रचनायें श्रीजिनभद्रगणि के बादकी ही निर्विवाद सिद्ध हैं। ३. दशवैकालिकचूर्णी के कर्ता श्री अगस्त्यसिंहगणी हैं।ये आचार्य कौटिकगणान्तर्गत श्रीवज्रस्वामी की शाखामें हुए श्रीऋषिगुप्त क्षमाश्रमण के शिष्य हैं । इन दोनों गुरु-शिष्योके नाम शाखान्तरवर्त्ति होनेके कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001106
Book TitleAgam 45 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Part 01
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorPunyavijay, Jambuvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1999
Total Pages540
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, G000, G010, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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