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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] सम्भावना नहीं थी कि इतने कठिन तपस्वी बन सकेंगे, उनकी प्रवृत्तिने संसारको यह उपदेश दे दिया है कि जबतक जीवके साथ मोह-माया है, तभी तक उसका सुधार दूर है; जहां निमित्त पाकर मोहमाया भगी, फिर उसका सुधार स्वयं उसके समीप दौड़ा हुआ आता है । स्वामी सुकुमाल की कथा कितनी हृदयद्रावक है, यह बात उस कथाके जाननेवाले जानते हैं । कहीं तो उनमें इतनी कोमलता कि - माता के द्वारा आरती उतारते समय दीपककी चमकसे उनके आंसू निकल रहे हैं, ऊपर फेंके हुए सरसों के दाने शरीरमें चुभ रहे है, जिन्होंने कभी महलसे बाहर जानेके लिए एक डग (पैर ) भी नहीं रखा है, सदा पुष्पोंकी शय्या पर आराम किया है, कभी सूर्य की धूप देखी भी नहीं है और सदा रत्नोंके समुज्वल एवं शांत प्रकाशमें ही कार्य किया है; उन्हीं स्वामी सुकुमालकी कहां इतनी कठोरता कि- जिसे कठोर से कठोर पुरुष भी. धारण करना तो दूर रहा, सुनकर ही सकम्प होने लगे ! जिन हाथोंसे कभी कठिन वस्तुका स्पर्श भी नहीं किया उन्हीं कोमलातिकोमल हाथोंसे डोरी पकड़कर सहसा गगनस्पर्शी महलसे नीचे उतर आना ! जिन कोमल चरणोंका कभी कठोर भूमिसे स्पर्श भी नहीं हुआ, उन्हींसे कंकरीली - पथरीली ऊंची-नीची भूमिसे व्याप्त दुर्गम मार्गो से भयानक जंगलमें चले जाना ! अहा ! जिनका शरीर पुष्पोंके पिछले भागमें रहनेवाले डंठुलों (घृतों ) को भी सहन नहीं कर सका, उन्हींके पुष्पोंसे भी कोमल शरीरको थोड़ा-थोड़ा करके सियालिनी और उसके पांच-सात बच्चे भक्षण कर रहे हैं ! और स्वामी सुकुमालका सुमेरुसम आसन रंचमात्र भी सकम्प नहीं हुआ है ! एक घण्टा, दो घण्टा, या एकदिन भी नहीं, किंतु तीनदिन तीनरात बराबर इसी घोरातिघोर उपसर्गको जिन्होंने परमशांतिसे एवं वीतराग - परिणामोंसे सहन किया, वे स्वामी सुकुमाल धन्य हैं ! वास्तवमें कर्मों को विजय कर सदाके लिए जन्म-मरण रोग-शोक आदि दुःखोंकी वाधासे छूटनेके लिए, ऐसी ही परमवीर महा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org [ ७१ Jain Education International
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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