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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] वचनकाय-कृत-कारित-अनुमोदना इन 'नव भेदोंसे ही होती है । इसलिए वहां अत्यंत मंदरूप सकषाय आस्रव होता है । आगे चलकर ईर्यापथ आस्रव होने लगता है । इसलिये मुनियों की प्रवृत्ति, उनके महा उज्वल परिणाम, लोकसे उत्तर ओर चमत्कार उत्पन्न करने वाले होते हैं । मुनियों के परिणाम सदा निर्मल एवं ध्यानस्थ रहते हैं। मुनिमहाराज न किसीपर रोष करते हैं, न किसीपर प्रेम करते है । जो कटुवचन कहते हैं, उन्हें भी वे वीतराग परिणामोंसे देखते हैं, और जो उनकी पूजा करते हैं, उन्हें भी वे उसी वीतरागदृष्टि से देखते हैं। न उन्हें तलवार-प्रहारसे भय है और न उपासना से अनुराग है-जगत्के समस्त पदार्थों में उदासीनता है । त्रस और स्थावरोंकी सदा रक्षा करते हैं, अयाचकवृत्ति से आहार ग्रहण करते हैं । चाहे कितने ही दिन आहार क्यों नमिले, परंतु वे अयाचकवृत्ति एवं निरंतराय-रूपसे ही उसे लेंगे; अन्यथा कदापि नहीं । कितनी ही कठोर शारीरिक वाधा क्यों न हो, वे कदापि किसीसे उसे दूर करनेके लिये नहीं कहते, और न स्वयं दूर करते हैं । बाह्यमें नग्न दिगम्बर स्वरूप-द्वारा, अंतरंगमें ध्यानद्वारा सदा कर्मों को नष्ट करते रहते हैं । ध्यानकी सिद्धि और वृद्धिके लिये कभी चातुर्मास एवं शीतकालमें नदीके किनारे ध्यानमें मग्न हो जाते हैं और कभी सूर्य के प्रचण्ड आताप से तपने वाली ग्रीष्म ऋतुमें अग्निमें दिये हुये लोहेके समान तपे हुए उन्नत पर्वतकी चोटीपर ध्यान लगाते हैं । कोई कितने ही घोर उपसर्ग क्यों न करे, उनका परिणामरूपी सुमेरु आत्मध्यानसे रंचमात्र भी विचलित नहीं होता और न उपसर्ग करने वाले पर रंचमात्र खेद प्रगट करते हैं, किंतु समझते हैं कि कर्मों का भार हलका किया जा रहा है । वास्तवमें मुनि महाराज कों से युद्ध करते हैं। जिसप्रकार एक राजा अनेक योद्धाओं १. मन-कृत, वचन-कृत, काय-कृत, मन-कारित, वचन-कारित, कार्यकारित, मन-अनुमोदित, वचन अनुमोदित, और काय-अनुमोदित इस प्रकार नवभेद हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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