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[ पुरुषार्थसिद्धयुपाय
है । जिससमय आत्मामें सम्यक्त्वगुण उत्पन्न होता है, उसीसमय ज्ञान सम्यग्ज्ञान और चारित्र सम्यकचारित्र कहलाता है । अर्थात् आत्मा जिस समय अपने स्वरूपमें प्रतीति करता है, उसीसमय वह उस शुद्ध चैतन्यस्वरूप जीवका बोध करने लगता है और अपने में स्वयंलीन हो जाता है। इसप्रकार सम्यग्दर्शन , सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकचारित्र, तीनों ही गुण ( रत्नत्रय ) मोक्षमार्ग कहलाते हैं। इसीका दूसरा नाम 'पुरुषार्थसिद्धथुपाय' है।
मुनियोंकी अलौकिक वृत्ति अनुसरतां पदमेतत् करविताचार नित्यनिरभिमुखा । एकांतविरतिरूपा भवति मुनीनामलौकिकी वृत्तिः ॥१६॥ ___ अन्वयार्थ-(एतत् ) इस (पदं ) पदको ( अनुसरतां ) अनुसरण करनेवाले अर्थात् रत्नत्रयको प्राप्त हुये ( मुनीनां ) मुनियोंकी ( करविताचार नित्यनिरभिमुखा ) पापमिश्रितआचारसे सदा पराङ मुख ( एकांत-विरतिरूपा ) सर्वथा त्यागरूप ( अलौकिकी वृत्तिः ‘भवति' ) लोक को अतिकम किये हुये वृत्ति होती है । ___ विशेषार्थ-इससे पहले श्लोकमें पुरुषार्थसिद्धिका उपाय सम्यग्दर्शनसम्यक्चारित्ररूप रलत्रयको बतलाया गया है । इस श्लोक-द्वारा यह बतलाते हैं, कि इस रत्नत्रयको पूर्णतासे धारण करनेवाले श्रीमुनिमहाराज होते हैं, उनकी प्रवृत्ति लोक से विलक्षण-जुदी अर्थात् लोगोंको आश्चर्य में डालनेवाली होती है। उनकी प्रवृत्तिमें दोष-सहित आचारका लेश नहीं होता; निर्दोष पूर्णचारित्र-सहितही उनकी प्रवृत्ति होती है ऐसी निर्दोष प्रवृत्ति होनेका भीयह कारण है कि उनकी प्रवृत्तिसर्वथा त्यागरूप होती है जिस प्रवृत्ति मेंसर्वथा त्याग नहीं है किंतु एकदेश त्याग है, वही प्रवृत्ति सदोष हो सकती है। एकदेश त्यागमें न तो पूर्ण संयम है, और न पूर्ण अहिंसावतका पालन हीहोता है । इसलिये वहां सकषाय आस्रवका ग्रहण होता रहता है । अनेक अतीचारों का समावेश होता रहता है । मुनियों का त्याग मन
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