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________________ पुरुषार्थसिद्धथुपाय ] फिर भी संशयके अलामें झूलते रहते हैं। इससे हित होगा या नहीं' ऐसी संशयबुद्धि उनका हित नहीं होने देती। कोई विपरीत मार्गको ही हितमार्ग समझ कर अपना और दूसरे जीवोंका अकल्याण कर रहे हैं । कोई वस्तुस्वरूपके एकदेशका ज्ञान कर उसे ही सम्पूर्ण वस्तुका स्वरूप समझ, उसी पर एकांतरूपसे दृढ़ बन हठवादी बन बैठे हैं । कोई कोई तत्त्व परीक्षामें असमर्थ होनेके कारण हरएक देवकी पूजा करते फिरते हैं। ऐसे लोगोंका मत है कि शिवके मंदिरमें भी नमस्कार करनेसे कुछ-नकुछ लाभ हो जायगा, कृष्ण मंदिरमें भी नमस्कार करनेसे कुछ-नकुछ लाभ हो जायगा । दिगम्बर मुनिको नमस्कार करनेसे लाभ होगा, तो श्वेताम्बर यतिको भी नमस्कार करनेसे लाभ होगा ।' इसप्रकारकी विनयबुद्धिसे वे हरएक मतके मानेहुए देवकी उपासना करते फिरते हैं, गंगा जमुनामें धर्म समझ कर स्नान भी करते हैं, पीर पैगम्बर, भैरों भवानी, माता पथवारी आदि सभी पत्थरों और सांकेतित स्थलोंको सिर झुकाते फिरते हैं । ऐसे ऐसे मिथ्यात्वभावोंसे यह संसारी जीव ठगा जा रहा है । जबतक मोहभाव मंद नहीं होता, तवतक मतवालेके समान अज्ञातभावोंमें तन्मग्न रहता है । जिससमय कर्मका भार कुछ हलका होता है, उससमय जीवका मोहभाव शांत होता है, उसीसमय सद्गुरु आदिके सदुपदेशसे इस जीवको सुबुद्धि उत्पन्न होती है । तभी वह निजतत्त्व निजस्वरूपको पहचानता है; निजरूपको समझ कर उसीको श्रद्धान करनेका नाम 'सम्यक्त्व' है। आत्माके शुद्धरूपको पहचान कर उस पर प्रतीति करनेसे आत्मा मोक्षमार्ग पर आरूढ़ हो जाता है । इसलिए उस प्रतीतिको ही पुरुषार्थसिद्धि-मोक्षसिद्धिका उपाय बताया गया है । अर्थात् जब आत्मासे मिथ्यापरिणति हट जाती है, तब आत्मा निजस्वरूपमें दृढ़श्रद्धालु बन जाता है, उस दृढ़श्रद्धान से वह कभी विचलित नहीं होता । आत्माके उसी भावको सम्यक्त्व कहते हैं; उसीका नाम पुरुषार्थासिद्धि अर्थात् जीवकी मोक्षसिद्धिका उपाय-मार्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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