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[ पुरुषार्थसिद्ध युपाय
पर पदार्थों को आत्माके समझना एवं वैसा श्रद्धान करना, यही भाव संसारको बढ़ानेवाला है । ऐसा विपरीतभाव मिथ्यादृष्टि जीवों के ही होता है, सम्यग्दृष्टियोंके नहीं होता । सम्यग्दृष्टि जीव तो कीचड़ में सनेहुए सोनेको मलिनभावसे नहीं देखते, किंतु कीचड़को केवल वाह्योपाधि समझ कर सोनेको सदा पीतादिगुण युक्त शुद्ध सोना ही समझते हैं। लाल पुष्प ( जवाकुसुम) के पृष्ठभागमें लगा देनेसे स्फटिक लाल दीखने लगता है, परंतु जाननेवालेको वह स्वच्छ धवल एवं निर्मल स्फटिक ही प्रतीत होता है; लालपुष्प केवल वाह्योपाधि प्रतीत होता है । जाननेवाला पुष्पके निमित्त से स्फटिकमें आई हुई रकताको स्फटिककी रकता नहीं समझता, किंतु पुष्पकी रकता समझता है । स्फटिकको वह स्वच्छनिर्विकार ही देखता है । ठीक उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि जीव आत्माको, कर्मबंधन सहित होनेपर भी, अमूर्त वीतराग एवं सर्वज्ञ ही जानता है और वैसा ही श्रद्धान करता है । वही श्रद्धान मुक्तिका कारण है, मिथ्यादृष्टिका इससे विपरीत है और वह संसारका कारण है।
पुरुषार्थसिद्धिका उपाय विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्त्वम् । यत्तस्मादविचलनं स एव पुरुषार्थसिद्धयुपायोऽयम् ॥१५॥
अन्धयार्थ-(विपरीताभिनिवेशं ) विपरीत श्रद्धानको ( निरस्य ) दूरकर ( निजतत्त्रं ) अपने स्वरूपको ( सम्यक् व्यवस्य ) अच्छीतरह समझकर ( यत् ) जो( तस्मात् ) उस निजस्वरूपसे ( अविचलनं ) चलायमान नहीं होना है, ( स एव अयं ) वह ही यह ( पुरुषार्थसिद्धथुपायः ) पुरुषके प्रयोजनकी सिद्धिका उपाय है ।
विशेषार्थ-जबतक मिथ्याप्रतीति अथवा मिथ्याश्रद्धानका जीवके उदय रहता है, तबतक उसे निजरूपका यथार्थज्ञान होता ही नहीं है । इस मिथ्यादर्शनके उदयसे जीवोंके अनेकप्रकारके परिणाम हो रहे हैं । कोई तो हितमार्ग ही नहीं पहचानते, कोई हितमार्ग तक पहुँच भी जाते हैं,
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