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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] [६५ लोभी पुरुषोंकी प्रशंसा करता हो । विकारभाव कभी प्रशंसनीय नहीं हो सकते । जो क्रोधादिको जीवके शुद्धभाव बतलाते हैं, वे भी क्रोधी मानी पुरुषोंकी निंदा ही करते हैं । इतना ही नहीं, किंतु अपनेको शांत एवं रागद्वष-रहित कहतेहुए महत्त्वशाली समझते हैं और उसकी पुष्टि भी करते हैं कि 'देखो ! हमें क्रोध कभी नहीं आता, हम बिलकुल मानी नहीं हैं, हमारे मायाचार नहीं हैं, हम लोभी नहीं हैं।' इसप्रकार क्रोधादिकोंको आत्माके निजीभाव बतलानेवाले पुरुष अपने आप ही अपने सिद्धांतका खंडन करते हैं। एक बात यह भी है कि जो वस्तु निजकी होती है, वह अधिक अथवा अल्परूपमें अपने पास रहती है । यदि क्रोधादिक भाव जीवकी निजकी वस्तु होती, तो क्रोध करनेवाला सदाकाल अधिक या थोड़ेरूपमें क्रोधी ही रहता; परंतु वैसा नहीं है। थोड़ी देरके लिए क्रोध आया, फिर शांत हो जाता है। बराबर कभी क्रोध किसी जीवके नहीं देखा जा सकता; किसी कालमें है, किसी कालमें सर्वथा नहीं । ज्ञान वैसा नहीं है, वह सदा ही रहता है; चाहे अधिकरूपमें रहे, चाहे स्वल्परूपमें रहे । इसलिए सिद्ध होता है कि जो वस्तु अपनी निजकी है, वही सदाकाल ठहर सकती है । और जो परनिमित्तसे होती है, वह परनिमित्त रहने तक ही रह सकती है, आगे नहीं । शरीरादिक तो जड़ हैं, वे आत्मासे सर्वथा भिन्न हैं । अनेक मिथ्यादृष्टि शरीरको आत्मीय वस्तु समझकर उसकी रक्षाके लिए हरप्रकारके अनर्थ करने लग जाते हैं । जीव- हिंसा करनी पड़े तो उसे भी करनेके लिये तैयार हो जाते हैं। यह सब गाढ़ मोही जीवोंका भाव है । यदि निश्चयदृष्टिसे विचार किया जाय तो आत्मा कर्मबंध होने पर भी मूर्त नहीं होता, वह सदा अपने स्वरूपमें ही रहता है । मिथ्यादृष्टि जीव कर्मकृत भावोंको जीवके भाव समझते हैं, उनकी यह समझ एवं उनका वैसा श्रद्धान संसारका बीज है । जिन भावोंसे संसारमें घुमानेवाले कर्मों के बंध हों, उन्हें 'संसारका बीज' कहा गया है । आत्मासे भिन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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