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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
तो सिद्धोंमें भी पाया जाता, परन्तु अज्ञानी जीव तीर्थंकर पर्यायको जीवकी निज पर्याय समझते हैं । यह सूक्ष्म अज्ञान वा मिथ्यात्व अनेक धार्मिक श्रद्धालु पुरुषोंके लगा रहता है, वे वस्तुस्वरूपके अंतस्तत्व पर नहीं पहुंच सके हैं । ऐसा सूक्ष्म अज्ञान भी द्रव्यलिंगीके हो सकता है । जिनके तीन एवं प्रगाढ़ मिथ्यात्व है, वे स्थूल कर्मकृत भावोंको जीवके समझ रहे हैं, जैसे कि आर्यसमाजी आदि कुछ प्रगाढ़ मिथ्यात्व है, वे स्थूल कर्मकृत भावोंको जीवके समझ रहे हैं, जैसे कि आर्यसमाजी आदि कुछ मतावलंबी क्रोध-मान-माया-लोभको मुक्त अवस्थामें मानते हैं, । वे कहते हैं कि 'जिसप्रकार ज्ञानादि जीवमें पाये जाते हैं, इसलिये ज्ञानादिके समान क्रोधादि भी जीवके भाव हैं।' परंतु यह उनका कहना सर्वथा मिथ्यात्व है और स्थूल मिथ्यात्व है । कारण ज्ञानादिकमें पर-निमित्तकी आवश्यकता नहीं है, वे जीवसे कभी भिन्न नहीं हो सकते, और सदाकाल रहते हैं, परंतु क्रोधादिक भिन्न भी हो जाते हैं और सदाकाल रहते भी नही हैं । अनेक जीव ऐसे हैं जिनके क्रोधादि शांत हो चुके हैं, अनेक ऐसे हैं जिनके कपाय कभी नहीं उत्पन्न होती। अनेक ऐसे भी हैं जिनके कषाय सर्वथा नष्ट हो चुकी है । क्रोधादिक पर-निमित्तसे होनेवाले भाव हैं, कारणके नाशमें र्कायका नाश अवश्यंभावी है ।
यदि क्रोधादिक भाव आत्मीयभाव होते, तो उनकी वृद्धि में आत्मा की उन्नति समझी जाती, जैसे ज्ञान और चारित्रकी वृद्धि में आत्माकी उन्नति समझी जाती है। फिर जैसे किसीको विशेषज्ञानी या संयमी देख कर यह कहा जाता है कि 'धन्य है आपकी विद्वत्ताको, धन्य है आपकी विरागताको' इसीप्रकार क्या किसीको विशेष-क्रोधी या मानी देखकर यह कहाजाता हैं कि 'धन्य है आपके क्रोधीपनको, धन्य है आपके मानीपनको' ? नहीं, संसारमें सभी समझदार क्रोधादिकी निंदा करते हुए ही पाये जाते हैं, कोई विवेकी ऐसा देखनेमें नहीं आता जो क्रोधी,मानी, मायावी एवं
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