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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
स्थानोंमें भी जीव कर्मों का आकर्षण करता है, क्योंकि सयोगकेवली तक आत्मा योगोंके निमित्तसे सकंप रहता है; परन्तु उनमें कषायका उदय न रहनेसे कर्मों का बंध नहीं होता। जो कर्म योग-द्वारा आते हैं, वे आत्मामें ठहरते नहीं । ठहरानेवाला कषायभाव है, वह वहां उदित नहीं है; इसलिये जिस क्षणमें कर्म आते हैं, उसी क्षणमें आत्मासे निकल कर कर्म-पर्याय छोड़ देते हैं । वहांपर कर्मों के आनेका, आत्मासे उनका सम्बन्ध होनेका
और आत्मासे उनके निकल जानेका एक ही समय है । सयोगकेवली गुणस्थानमें, जहां आत्मा परमपूज्य सर्वज्ञ वीतराग हो जाता है, वहां भी सकंपता वश कर्म ग्रहण करता है । यद्यपि वह कर्म-ग्रहण आत्माके गुणोंका घात नहीं करता, फिर भी आत्माकी योग शक्रिके स्वभाव-परिणामनको रोकता है। इसलिये जिससमय आत्मा अचल चैतन्यको पा लेता है, अर्थात् जब आत्मा में योगजनित चलायमानता नहीं रहती है, उसीसमय आत्मा अयोग-केबली-गुणस्थानको पाकर वहां परमोत्कृष्ट शुक्लध्यान (व्युपरतक्रियानिवृत्ति ध्यान ) द्वारा समस्त अघातिया-प्रकृतियोंका नाश करके लोकशिखर पर सिद्धालयमें विराजमान हो जाता है। ___यही अवस्था 'मोक्ष' कहलाती है। समस्त कर्मबन्धनसे छूटनेका नाम ही मोक्ष है । मोक्ष गये हुये जीवोंका फिर कभी संसारमें लौटना नहीं होता। वहां न जन्महै,न मरण है, न बुढ़ापा है, न भय है, न रोग है, न शोक है, न दुःख है । आत्मा सदा अनन्तज्ञान-सुख-वीर्य-दर्शनधारी शुद्धा. वस्थामें विराजमान रहता है । उसे कभी कोई विकार नहीं होता । आत्मा उस अवस्थामें कृतकृत्य हो जाता है । अर्थात् संसारमें पुद्गलके निमित्तसे सांसारिक सुख दुःख एवं उनकी उत्पादिका क्रियाओंका कर्ता और भोक्का बन रहा था । कर्मोदयवश जैसे जैसे भावोंका उपार्जन करता था एवं जैसे जैसे कर्तव्य करता था, उन्हींके अनुसार होनेवाले फलोंको भी भोगता था,
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