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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] [ ५१ विशेषार्थ- जबतक आत्मामें सकंपता वा चलायमानता रहता है, तबतक वह कर्म का आकर्षण करता रहता है, उस सकंपताका कारण योग है, दशवें गुणस्थान तक आत्मामें सकषाय योग रहता है, वहांतक आत्मा कमोंको खींचता भी है और बंध भी करता है । दशवें गुणस्थान में कषाय भाव अत्यंत मंद है, केवल सूक्ष्मलोभका उदय है, सो भी अंतमूहूर्त मात्रकी स्थिति लेकर उदय में आता है; इसलिये उसकेद्वारा जो कर्मबंध होता है उसकी स्थिति भी अंतमुहूर्त मात्र पड़ती है । इसीलिये उपशमश्रेणी मानड़ेवाले जीवके दशवें गुणस्थान से ग्यारहवां गुणस्थान होता है । जिन उपशांत परिणामोंसे वह कषायोंका उपशम करता है, अंतर्मुहूर्तमात्र में उनमें कषाय-निषेकोंका उदय होने से सकषायता आ जाती है । उस अवस्थामें जीव तत्काल वहांसे गिर जाता है और दशवें नवमें आदि नीचेके गुणस्थानोंमें आ जाता है । क्षपकणी माडनेवाले जीवके दशवेंसे एकदम बारहवां गुणस्थान होता है, वह विशुद्धतम परिणामोंसे कर्मों का क्षय करता जाताहै । कषायभावोंका उदय केवल दशवें गुणस्थान तक ही जीवके रहता है, आगे नहीं । परन्तु आगेके तीन गुणस्थानोंमें-ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें ( उपशांतकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली ) इन तीन गुणोंस्थानोंमें -योग तो रहता है और इसीलिये इन गुण१ पुग्गलविवाइदेहोदयेण मणवयणकायजुत्तस्स । जीवस्स जा हु सत्तो कम्मागमकारणं जोगो ॥ २१६ ॥- गोम्मटसार, जीवकांड अर्थात् - आत्माकी निज-शक्तिका नाम योग है । वह शक्ति सिद्धोंमें भी है, परन्तु कोई भी शक्ति जबतक वाह्य-निमित्तको नहीं पाती, तब तक वह विभाव-परिणाम नहीं धारण करती है योगशक्तिको वाह्यमनोवर्गणा अथवा वचनवर्गणा अथवा कार्यवर्गणाका जब अवलम्ब मिलता है, और पुद्गल विपाकी नामा तथा अंगोपांग नामकर्मका आत्मामें उदय होता है. उससमय उस योगशक्तिमें विभाद-परिणमव होता है, उसीसमय आत्मामें सकम्पता होकर कर्मोंका ग्रहण होने लगता है । जिससमय योगशक्ति मनोवर्गणाका अवलम्बन कर कर्म नोकर्मको ग्रहण करती है, उससमय उसे “मनोयोग” कहते हैं. वचनवर्गणाके अवलम्बन करने पर “वचनयोग" और कायवर्गणाके अवलम्बन करने पर काययोग कहते हैं २ ग्यारहवें गुणस्थानमें मरण करने पर एकदम चतुर्थ गुणस्थान हो जाता है, विना मरणके दशवें आदि गुणस्थान क्रम से प्राप्त होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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