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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
है-कर्मजनित भावोंको आत्मीय भाव मान बैठता है-रागादि भावोंको आत्मीय भाव समझता है-समीचीन उपदेशको विपरीत मानता है-विपरीतको ठीक मानता है-शरीरादिक एवं अन्यान्य सांसारिक वासनाओंमें रुचिपूर्वक मग्न हो जाता है-उनमें गाढ़ स्नेह करने लगता है । उसी तीव्र मोहवश बाह्यप्रवृत्ति भी धर्म विपरीत करने लगता है । यह सब वैभाविक भावोंका ही परिपाक है । वैभाविक भाव जीवके निज भाव हैं, परंतु कर्मके उदयसे होनेवाले भाव हैं, वे जीवके स्वभाव भाव नहीं हैं । उन रागद्वषादिक विभावभावोंका कर्ता जीव है तथा उनसे होनेवाले फलोंका भोक्ता भी जीव है। कषाय एवं अज्ञानवश जीव स्वयं उन विभावभावोंको उत्पन्न करता है, और उनसे होनेवाले परिणामोंका स्वयं भोगनेवाला है।
यहांपर यह भी समझ लेना चाहिये कि निश्चयनयसे आत्मा अपने ही शुद्धभावोंका कर्ता और भोक्ता है । परभावोंका वह न कर्ता है, न भोक्का है । व्यवहारनयसे जीव राग द्वषादिक परभावोंका भी कर्ता तथा भोक्ता है । रागद्वषादिक वास्तव में परभाव हैं; कारण पर पुद्गलके निमित्तसे ही होनेवाले आत्माके विभावभावको परभाव कहते हैं । रागादिक, पर-निमित्त से आत्माके ही विभावभाव हैं, इसीलिये उन्हें आत्मीय भाव कहा गया है।
पुरुषार्थसिद्धिका स्वरूप सर्वविवत्तॊत्तीर्णं यदा स चैतन्यमचलमाप्नोति ।
भवति तदा कृतकृत्यः सम्यकपुरुषार्थसिद्धिमापन्नः॥११॥ अन्वयार्थ-यदा) जिससमय (सर्व विवतॊत्तीर्ण। समस्त वैभाविकभावोंसे उत्तीर्ण वा रहित होकर ( सः) वह पुरुष ( अचलं ) निष्कंप ( चैतन्यं ) चैतन्यस्वरूपको ( आप्नोति ) प्राप्त होता है. ( तदा ) उससमय ( सम्यक्पुरुषार्थसिद्धिं ) समीचीन पुरुषार्थसिद्धि-पुरुषके प्रयोजनकी सिद्धिको (आपन्नः 'सन्' ) पाता हुआ ( कृतकृत्यः ) कृतकृत्य ( भवति ) हो जाता है।
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