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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
परिणाम-शुक्लाध्यानरूप अग्नि भी उन अनादिकालसे संचित कर्मों को क्षणभरमें नष्ट कर देती है।
जब तक जीव घातिया-कर्मों से लिप्त रहता है, तब तक उसके गुणोंका पूर्ण विकाश नहीं हो पाता, प्रतिपक्षी कर्मों के निमित्तसे आत्मीयगुण आच्छादित हो जाते हैं। इतना ही नहीं, किंतु उनका विपरीत परिणमन भी होता है । आत्माके गुणोंका विपरीत परिणमन मोहनीयकर्मके निमित्तसे ही होता है; बाकी समस्त कर्म गुणोंको ढक लेते हैं, परंतु विपरीत परिणाम नहीं करते । जैसे, ज्ञानावरण और दर्शनावरणकर्मके निमित्तसे ज्ञानगुण और दर्शनगुण की प्रकटता नहीं होगी । जैसे जैसे कर्मों की तीव्रता अथवा मंदता होगी, उसीके अनुसार उन गुणोंकी प्रगटता भी तरतमरूपसे मंद अथवा तीन होती रहेगी । इसीप्रकार अंतरायकर्म वीर्यादि गुणोंका विकाश नहीं होने देगा, परंतु उन्हें विपरीत स्वादवाला नहीं बनावेगा । मोहनीयकर्ममें सब कमों से यही विचित्रता और महा कठोरता है कि वह अपने प्रतिपक्षी गुणों को तथा उनसे संबंध रखनेवाले गुणोंको भी विपरीत-स्वादु ( उल्टा स्वाद वाला ) बना देता है । आत्माके सम्यक्त्व-गुणका यह कार्य है कि वस्तुके स्वभाव-सिद्ध स्वरूप पर पहुँच कर उसीका यथार्थ श्रद्धान करना, एवं आत्मीय शुद्ध-स्वरूप वा स्वानुभूतिका अनुभव करना । यह आत्माका चतुर्थ गुणस्थानवर्ती परिणाम है, परंतु ज्योंही अनंतानुबंधी क्रोध-मान-मायालोभ अथवा मिथ्यात्वकर्मका उदय हुआ, त्योंही झट आत्मा अपने उस शुद्धस्वरूप वा परमानंदमय सुखस्वरूपसे च्युत होकर द्वितीय गुणस्थान अथवा प्रथम गुणस्थानवर्ती विभाव-परिणामोंका आस्वादी बन जाता है । उन मिथ्यात्वरूप विभाव परिणामोंके कारण आत्मा वस्तुको विपरीत स्वरूप वाला समझता है तथा वैसा ही श्रद्धान कर लेता है । मिथ्यात्वके प्रभावसे सम्यक्त्वका साथी सम्यग्ज्ञान भी अपने स्वरूपसे च्युत होकर मिथ्याज्ञान हो जाता है। वैसी अवस्थामें वह पदार्थों को विपरीतरूपसे ही ग्रहण करता
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