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[पुरुषार्थसिद्धय पाय mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm होते हैं, जिनका अनादि-संबंध होता है। जीवद्रव्य और कर्मद्रव्य यदि पहिले भिन्नभिन्न माने जाय, तो जीवको शुद्ध मानना पड़ेगा; क्योंकि अशुद्धता जीवमें कमों के निमित्तसे आती है, कर्मों के अभावमें वह शुद्ध रहता है, जैसे कि सिद्धपरमेष्ठी । यदि जीव पहले शुद्ध था, तो पीछे अशुद्ध कैसे हुआ ? यदि 'बाह्य कारणके मिलनेसे अशुद्ध हुआ ऐसा कहा जाय, तो बाह्य कारण तो सिद्धोंको भी मिले हुए हैं । वे क्यों नहीं अशुद्ध हो जाते, सूक्ष्म कर्माणवर्गणायें सिद्धोंके समीप भी हैं ? यदि कहा जाय कि आत्माकी निजशक्तिका विभाव उसे अशुद्ध बनाता है तो वह विभाव शुद्ध जीवमें कबसे क्यों हुआ ? बिना कर्मों के सम्बन्ध हुए ही यदि विभाव हो गया, तो सिद्धोंके भी क्यों नहीं हो जाता ? इन विकल्पोंसे यह बात सिद्ध होती है कि जीव और कर्मके सम्बन्धमें निमित्त-नैमित्तिकभाव एवं हेतु-हेतुमद्भाव है। इसीलिये जीवमें अनादिकालीन अशुद्धता सिद्ध होती है । डंडा और पुरुषका जो दृष्टांत सादि-सम्बन्धके लिए दिया गया है, वह विषम है। यहांपर खनिसे निकले हुए सोनेका दृष्टांत घटित करना चाहिए । पुद्गलोंमें कोई स्कंध परस्पर अनादिसे संबंधित हैं, जैसे कि अकृत्रिम पदार्थ । कोई सादि संबंध करते हैं, फिर भिन्नभिन्न हो जाते हैं; पीछे फिर मिल जाते हैं । उसका कारण उनमें रहनेवाले रूक्ष-स्निग्धादिक भाव हैं । कोई कोई ऐसा भी कहते हैं कि 'जब जीवका कर्मके साथ अनादि-संबंध है, तो वह अनंतकाल तक ठहरेगा भी। ऐसी अवस्थामें जीवकी मुक्ति होना ही असंभव है। ऐसा कहनेवाले पदार्थके विचार तक नहीं पहुंच सके हैं । जिन कारणों के मिलने से आत्मा कर्मों का भार धारण कर रहा है, उनके हटा देनेपर उसे मुक्ति होने में देर लगने का कोई कारण नहीं दीखता । ईंधनका बहुत बड़ा पुंज यदि अनेक वर्षों में इकट्ठा किया जाय, तो क्या उसके जलानेमें भी उतना ही काल आवश्यक है ? जिस प्रकार दैदीप्यमान अग्नि समस्त संचित काष्ठको एक पलभर में ध्वंस कर देती है, उसीप्रकार आत्माके वीतररांग
ठहरेगा भी
विचार तक कर रहा है, उनकधनका बहुत बड़ा उतना
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