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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] [ ४७ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmar ही आत्माओंमें इतना बड़ा अन्तर पड़ गया है कि भव्य शुद्ध हो जाता है, अभव्य नहीं होता। बाकी अन्यान्य समस्त अनन्तगुण दोनोंप्रकारके आत्माओंमें समान हैं । अभव्य आत्मामें भी समस्त शनियां भव्य आत्मा के तुल्य हैं । जैसे केवलज्ञान-शक्नि, सम्यक्त्व-शकि, चारित्र-शक्ति ये शनियां भव्यमें रहती हैं, वैसे अभव्य में भी हैं । यदि अभव्यमें वैसी शक्रियां नहीं मानी जांय, तो उसके केवल ज्ञानावरण, दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्मों का उदय भी नहीं बनेगा। उन कर्मों का उदय उन शकियोंकी व्यक्तिको ही रोकने वाला है, इसलिए उनकर्मों के मानने पर आच्छादित शकियां भी माननी ही पड़ती हैं । इसप्रकार अभव्यजीव अनादिकालसे कर्मो से वद्ध है और अनन्तकाल तक वद्ध ही रहेगा। उसकी कर्मों से कभी मुक्ति नहीं हो सकती । यह अभन्यत्वशकिका ही महात्म्य है । ___ भव्य जीव भी अनादिकालसे बँधा हुआ है, परंतु काललब्धिके मिलने पर-कर्मों का भार हल्का पड़ जानेपर-भव्यत्व-शक्तिका पक्व परिणमन होने पर वह सम्यक्त्वादिक निज-गुणोंका विकाश करता है, पीछे आत्मीय विशुद्धताके बढ़ जानेसे कर्मों के उदयको अत्यन्त मन्द करता हुआ वही आत्मा अपने वीतराग-परिणामोंसे कर्मों को सर्वथा नष्ट कर सदाके लिए मुक्त हो जाता है। एकबार मुक्त होने पर वह फिर कभी कर्मो से वद्ध नहीं होता। ___ जो लोग आत्मा और कर्मको स्वतन्त्र बतलाते हुए उनका सादि-संबंध बतलाते हैं, उनसे पूछना चाहिए कि धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन चारों द्रव्योंका संयोग-संबंध सादि है या अनादि ? यदि सादि है तो उन्हें सक्रिय मानना पड़ेगा, क्योंकि बिना क्रियाके वे परस्पर मिल कैसे सकते हैं ? तथा बिना संबंधके पहले वे कहां किस रूपमें स्वतंत्र ठहरे थे, फिर किस निमित्त से मिले ? यदि अनादि है, तो मानना पड़ेगा कि स्वतन्त्र द्रव्य ऐसे भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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