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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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उत्पाद व्ययके साथ बदलता रहता है। यहां शंका हो सकती है कि 'ध्रौव्यके बदलने पर वस्तुका ही नाश माना जायेगा ? 'इसका उत्तर यह कि-ध्रौव्य बदलता अवश्य है; यदि वह बदले नहीं तो अस्तित्वगुणका परिणाम नहीं कहा जा सकता, बदलने पर भी अस्तित्वके सद्भावका सूचक होता है। इसकी सूक्ष्मता इसप्रकार है-जैसे घड़ेके फूटने और कपालके उत्पन्न होने में मिट्टी ध्रौव्य है, ध्रौव्य होने पर भी मिट्टी एकरूपमें नहीं रहती, घड़ेकी अवस्थामें मिट्टीका अस्तित्व दूसरे आकारमें है और कपालकी अवस्थामें मिट्टी का अस्तित्व दूसरे आकारमें है, परन्तु जैसे घट का नाश और कपालका उत्पाद हो जाता है, वैसे मिट्टीका नाश और उत्पाद नहीं होता, मिट्टी दोनों अवस्थाओंमें मिट्टी-रूप ही रहती है। यही ध्रौव्यमें कथंचित् नित्यता घटित होती है । इसीलिए ध्रौव्यकी, गुणके साथ व्याप्ति है और व्यय-उत्पादकी, पर्यायके साथ व्याप्ति है । गुणका परिचय ध्रौव्यसे होता है और व्यय-उत्पादसे पर्यायका परिचय होता है । उत्पाद-व्यय ध्रौव्य तीनोंसे गुणपर्यायात्मक द्रव्यका स्वरूप जाना जाता है ।
यहांपर एक शंका यह उपस्थित हो सकती है कि 'ऊपर तीनोंका एक ही समय बतलाया गया है; ऐसी अवस्थामें मनुष्यपर्यायका नाश तथा देवपर्यायका उत्पाद, इन दोनोंका भिन्न समय होनेसे व्यय-उत्पादका एक समय कहना विरुद्ध पड़ता है। कारण जो जीव तीन मोड़ लेकर जन्म लेनेवाला है, उसके दूसरी पर्यायका उत्पाद मरण-समयसे चौथे समयमें होता है; ऐसी अवस्थामें व्यय-उत्पादका एक समय कैसे बन सकता है ? स्थूलदृष्टिसे विचार करनेसे शंका ठीक मालूम होती है, परन्तु सूक्ष्मदृष्टिमें विचार करने पर ऊपर की गई शंका निर्मूल ठहरती है। जो मनुष्य - पर्यायका मरणकाल है, उसी क्षणमें देव-पर्यायका उत्पाद होता है । यद्यपि स्थूलतासे मरणकालसे तीन समय पीछे देवपर्यायका उत्पाद प्रतीत होता है, परन्तु वास्तवमें मरण और उत्पत्तिका विचार करनेसे दोनोंका एक ही
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