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[ पुरुषार्थसिद्ध घ पाय anmmmmmmmmmmmmmmm काल सिद्ध होता है । आयु और गतिके छूटनेको ही मरण कहते हैं, मनुप्यायुका नष्ट होना और मनुष्यगतिका नष्ट होना ही मनुष्यजन्मका नाश अथवा 'मरण' कहलाता है तथा आयु-गतिका उदय होना ही नूतन 'जन्म' कहलाता है । जिससमय मनुष्यपर्यायमें रहनेवाले जीवकी मनुष्यायु और मनुष्यगतिका नाश होता है, उसी कालमें देवायु और देवगतिका उदय' प्रारंभ होता है; अन्यथा विग्रहगतिमें किस गति और किस आयुका उदय माना जायगा ? इसलिये जीवका मरणकाल और आगामीपर्यायका उत्पाद एक ही क्षणमें होता है और इसीलिये उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, वस्तुके स्वभावसिद्ध एवं निर्दोष लक्षण हैं । अतएव पुरुषके स्वरूप-कथनमें तीनोंका विशेषणरूपसे विधान किया गया है।
जीव स्वयं कर्ता और भोक्ता है परिणममानो नित्यं ज्ञान विवतैरनादिसंतत्या । परिणामानां स्वेषां स भवति कर्ता च भोक्ता च॥ १० ॥
अन्वयार्थ - (सः) वह पुरुष-बीव (नित्यं ) सदा ( अनादिसंतत्या ) अनादि-संततिसे ( ज्ञानविवः ) ज्ञानके विवर्ती से ( परिणमन करता हुआ ( स्वेषां) अपने ( परिणामानां) परिणामोंका ( कर्ता ) करनेवाला (च) और (भोक्ता) भोगनेवाला (च) भी (भवति) होता है।
विशेषार्थ-अनादिकालसे यह जीव कर्मों के संबंधसे अशुद्ध हो रहा है; जैसे खनिमें पड़ा हुआ सोना सदासे अशुद्ध ही रहता है। ऐसा नहीं है कि पहले सोना शुद्ध हो, पीछे अशुद्ध होता हो; किंतु खानमें जबसे सोनारूप पर्याय उसने धारण की है, तभीसे वह अशुद्धिमें सना हुआ है । इसीप्रकार जीव भी संसारमें अशुद्ध ही सदा रहता है । यहां पर यह प्रश्न करना
१.“गदिआणुआउ उदओ सपदे"......।। २८५ ॥ - गोम्मटसार, कर्मकांड अर्थात् गति, आनुपूर्वी और आयु इन तीनोंका उदय एक साथ होता है। जिससमय मनुष्यपर्यायका व्यय होता है, उसीसमय देवायु, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, इन तीनोंका उदय एक साथ प्रारम्भ हो जाता है । यही जीवका नूतन जन्म कहा जाता है।
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