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________________ [ पुरुषार्थसिद्धय पाय पुदगलसे ही ज्ञानतन्तुओंका विकाश होता है, और अंतमें वह विकाश उसी पुद्गलमें समाविष्ट हो जाता है।' जो ज्ञानतन्तुओंका विकाश है उसे ही वे लोग जीव बतलाते हैं। जीव एक स्वतंत्रपदार्थ है, ऐसा वैज्ञानिक' (साइन्टिफिक) नहीं मानते हैं । इस विषयमें विचार करने की बात है कि यदि जीव कोई स्वतन्त्र पदार्थ न हो एवं पुद्गलका ही विकाश हो, तो जैसे जीवित शरीर में ज्ञान पाया जाता है वैसे किसी पुद्गलमें क्यों नहीं देखनेमें आता ? पुद्गलके गुण रूप रस, गंध, स्पर्श हैं, ये चारों ही प्रत्येक पुद्गलमें नियमसे पाये जाते हैं, कोई ऐसापुद्गल नहीं है जिसमें उक्त चारों ही गुण न हों । यदि ज्ञान भी पुद्गलका ही गुण होता, तो किसी न किसी पुद्गलमें उसकी व्यक्ति अवश्य ही दीखती, परन्तु किसी भी पुद्गलमें रूपरसादिकी तरह ज्ञानगुण नहीं दीखता; इसलिए सिद्ध होता है कि ज्ञान पुद्गलका गुण नहीं है । जो लोग यह मानते हैं कि 'जीव योंही योग्यता पाकर पुद्गलमें पैदा हो जाते हैं, जैसे कीचड़ पानी आदिमें झट बहुतसे जीव देखनेमें आते हैं।' इसप्रकार जो जीवको पुद्गलमें उत्पन्न होता हुआ मानते हैं, वे वास्त विक तत्वकी तह तक नहीं जा सके हैं । यथार्थ बात यह है कि जीव तो अजर अमर है, उसका न तो कभी विनाश होता और न उत्पत्ति होती है। जगत्में जितने भी द्रव्य हैं, वे सब सदा रहनेवाले हैं, किसीका कभी नाश नहीं होता । यदि वस्तुओंकी नवीन उत्पत्ति होने लगे तो द्रव्योंकी नियति तथा उनकी कार्यकारणरूप नियमित श्रृंखला नहीं रह सकती, वैसी अवस्था में सभी पदार्थ संकर एवं लुप्त हो जायगे । इसलिए 'सत्से कभी असत् नहीं होता असत्से ( अभावसे) कभी सत् ( भाव ) नहीं होता' इस सिद्धान्तको साइन्स ( भौतिक-मतवाद ) भी स्वीकार करता है । जीवभी ___ (१) जिसे अंग्रेजीमें “मैटर" कहते हैं । ( २ ) आजकल कुछ वैज्ञानिक ( साइन्टीफिक ) आत्माको पुछालसे भिन्न, एक स्वतंत्रपदार्थ मानने भी लगे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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